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अन्य. यो. व्य. श्लोक १२] स्याद्वादमञ्जरी
१०७ तदेवं सिद्धेऽपि प्रत्यक्षानुमानाभ्यां ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वे “सत्संप्रयोगे इन्द्रियबुद्धिजन्मलक्षणं ज्ञान, ततोऽर्थप्राकट्यं, तस्मादापत्तिः, तया प्रवर्तकज्ञानस्योपलम्भः''' इत्येवंरूपा त्रिपुटीप्रत्यक्षकल्पना भट्टानां प्रयास
यौगास्त्वाहुः । ज्ञानं स्वान्यप्रकाश्यम्, ईश्वरज्ञानान्यत्वे सति प्रमेयत्वात्, घटवत् समुत्पन्नं हि ज्ञानमेकात्मसमवेतमनन्तरोद्भविष्णुमानसप्रत्यक्षेणैव लक्ष्यते, न पुनः स्वेन । न चैवमनवस्था । अर्थावसायिज्ञानोत्पादमात्रेणैवार्थ सिद्धौ प्रमातुः कृतार्थत्वात् । अर्थज्ञानजिज्ञासायां तु तत्रापि ज्ञानमुत्पद्यत एवेति । तदयुक्तम् । पक्षस्य प्रत्यनुमानबाधितत्वेन हेतोः कालात्ययापदिष्टत्वात् । तथाहि । विवादास्पदं ज्ञानं स्वसंविदितं, ज्ञानत्वात् , ईश्वरज्ञानवत्। न चायं वाद्यप्रतीतो दृष्टान्तः, पुरुषविशेषस्येश्वरतया जैनैरपि स्वीकृतत्वेन तज्ज्ञानस्य तेषां प्रसिद्धः ॥
व्यर्थविशेष्यश्चात्र तव हेतुः, समर्थविशेषणोपादानेनैव साध्यसिद्धः। अग्निसिद्धौ धूमवत्त्वे सति द्रव्यत्वादितिवद्, ईश्वरज्ञानान्यत्वादित्येतावतेव गतत्वात् । न हीश्वरज्ञानादन्यत् स्वसंविदितमप्रमेयं वा ज्ञानमस्ति, यव्यवच्छेदाय प्रमेयत्वादिति क्रियेत । भवन्मते तदन्यज्ञानस्य सर्वस्य प्रमेयत्वात् ।।
इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमानसे ज्ञानके स्वयं संवेदक सिद्ध हो जानेपर भाटोंकी त्रिपुटी प्रत्यक्षकी कल्पना करना भी विलकुल व्यर्थ है। भाट्टोंके अनुसार, (१) विद्यमान पदार्थों के साथ इन्द्रिय और बुद्धिका संयोग होनेसे ज्ञान उत्पन्न होता है, (२) इस ज्ञानसे अर्थप्राकटय, अर्थात् पदार्थका ज्ञान होता है, (३) पदार्थके ज्ञानसे होनेवाली अर्थापत्तिसे प्रकाशक ज्ञानका संवेदन होता है। इसे भाट्ट मतमें त्रिपुटी प्रत्यक्ष कहा है ।
न्यायवैशेषिक-घटसे भिन्न ज्ञानके द्वारा जिस प्रकार घट प्रकाशित किया जाता है, उसी प्रकार ईश्वरज्ञानसे भिन्नता होने पर प्रमेय रूप होनेसे ज्ञान अपनेसे भिन्न ज्ञानके द्वारा प्रकाश्य है। अपनी उत्पत्ति होनेके बाद जिसका एक आत्माके साथ समवाय संबंध होता है, ऐसे पदार्थका ज्ञान अपनी उत्पत्तिके बाद उत्पन्न होने वाले मानस प्रत्यक्षके द्वारा जाना जाता है, स्वयं अपने द्वारा नहीं जाना जाता। इस प्रकार ज्ञानको अन्य ज्ञान द्वारा प्रकाश्य मानने पर अनवस्था दोष नहीं आता। क्योंकि नर्थको जाननेवाले ज्ञानकी उत्पत्ति मात्रसे ज्ञातृज्ञानके प्रयोजनकी सिद्धि हो जाने पर ज्ञातृज्ञान कृतार्थ हो जाता है। जब प्रमाताको पदार्थोंको जानने की इच्छा होती है उस समय भी ज्ञानकी उत्पत्ति होती है। जैन-यह कथन ठीक नहीं है । क्योंकि 'ज्ञान अपने से भिन्न ज्ञानके द्वारा जाना जाता है'-इस अनुमानका पक्ष 'विवादास्पद ज्ञान स्वसंविदित है, ज्ञान होनेसे, ईश्वरज्ञानकी भांति'-इस प्रति अनुमानसे बाधित होनेके कारण हेतु कालात्ययापदिष्ट ( हेत्वाभास ) हो गया है (जो हेतु पक्ष के प्रत्यक्ष, अनुमान, आगम आदि प्रमाणोंके द्वारा बाधित किये जाने पर उपस्थित किया जाता है, उसे कालात्ययापदिष्ट कहते हैं ) । यहाँ ईश्वरज्ञानका दृष्टान्त अप्रतीत नहीं क्योंकि पुरुष विशेषको जैनोंने भी ईश्वररूपसे स्वीकार किया है।
इसके अतिरिक्त, उक्त हेतु व्यर्थविशेष्यसे दूषित है, क्योंकि यहाँ समर्थ विशेषणसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाती है । 'ज्ञानं स्वान्यप्रकाश्यम् ईश्वरज्ञानान्यत्वे सति प्रमेयत्वात् घटवत्' ( ज्ञान अपनेसे भिन्न ज्ञानके द्वारा प्रकाश्य है, ईश्वरज्ञानसे भिन्न होने पर, घटकी भांति )-यहाँ 'ईश्वरज्ञानान्यत्वे सति' विशेषणको ग्रहण करनेसे ही 'ज्ञानं स्वान्यप्रकाश्यं'-साध्यकी सिद्धि हो जाती है, अतएव 'प्रमेयत्वात्' विशेष्य व्यर्थ है।
१. जैमिनिसूत्रे १-१-४५ सूत्रानुगुणमेतत् । घटादिविषये ज्ञाने जाते 'मया ज्ञातोऽयं घटः' इति घटस्य ज्ञातत्वं प्रतिसंधीयते । तेन, ज्ञाने जाते सति 'ज्ञातता नाम कश्चिद्धर्मो जातः' इत्यनुमीयते । सा च ( ज्ञातता ) ज्ञानात्पूर्वमजातत्वात्, ज्ञाने जाते च जातत्वाच्च, अन्वयव्यतिरेकाम्यां 'ज्ञानेन जन्यते' इत्यवधार्यते (तर्कभाषा पृ. २२)। ज्ञानस्य मितिः माता मेयम् तद्विषयकत्वात् त्रिपुटी तत्प्रत्यक्षता ।