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अन्य. यो. व्य. श्लोक १२] स्याद्वादमञ्जरो
१०५ अथ नासौ स्वमपेक्ष्य कर्मतया चकास्तीत्यस्वप्रकाशकः स्वीक्रियते, आत्मानं न प्रकाशयतीत्यर्थः । प्रकाशरूपतया तूत्पन्नत्वात् स्वयं प्रकाशत एवेति चेत्, चिरञ्जीव । न हि वयमपि ज्ञानं कर्मतयैव प्रतिभासमानं स्वसंवेद्यं ब्रूमः । ज्ञानं स्वयं प्रतिभासत इत्यादावकर्मकस्य तस्य चकासनात् । यथा तु ज्ञानं स्वं जानामीति कर्मतयापि तद्भाति, तथा प्रदीपः स्वं प्रकाशयतीत्ययमपि कर्मतया प्रथित एव ॥ ___यस्तु स्वात्मनि क्रियाविरोधो दोष उद्भावितः सोऽयुक्तः । अनुभवसिद्धेऽर्थे विरोधीसिद्धेः । घटमहं जानामीत्यादौ कतृकर्मवद् ज्ञप्तेरप्यवभासमानत्वात् । न चाप्रत्यक्षोपलम्भस्यार्थदृष्टिः प्रसिध्यति । न च ज्ञानान्तरात् तदुपलम्भसम्भावना, तस्याप्यनुपलब्धस्य प्रस्तुतोपलम्भप्रत्यक्षीकाराभावात् । उपलम्भान्तरसम्भावने चानवस्था । अर्थोपलम्भात् तस्योपलम्भे अन्योन्याश्रयदोषः॥
अथार्थप्राकट्यमन्यथा नोपपद्येत यदि ज्ञानं न स्यात्, इत्यर्थापत्त्या तदुपलम्भ इति चेत् । न । तस्या अपि ज्ञापकत्वेनाज्ञाताया ज्ञापकत्वायोगात् । अर्थापत्त्यन्तरात तज्ज्ञानेऽनवस्थेतरेतराश्रयदोषापत्तेः तदवस्था परिभवः। तस्मादर्थोन्मुखतयेव स्वोन्मुखतयाऽपि ज्ञानस्य प्रतिभासात् स्वसंविदितत्वम् ।।
शंका-अपनी अपेक्षा करके यह प्रदीप कर्म रूपसे प्रकाशमान नहीं होता, अतः अस्वप्रकाशक रूपसे स्वीकृत होता है, अर्थात् वह अपने आपको प्रकाशित नहीं कर सकता; प्रकाश रूपसे उत्पन्न होनेसे वह स्वयं प्रकाशमान होता ही है। समाधान-यदि ऐसी बात है तो ज्ञान कर्म रूपसे ही प्रकाशमान होनेसे स्वसंवेद्य होता है, ऐसा हम भी नहीं मानते। क्योंकि 'ज्ञान स्वयं प्रकाशमान होता है। इस वाक्यमें भी कर्मरूप न होनेवाला ज्ञानका प्रकाश होता है। जिस प्रकार 'ज्ञान अपने आपको जानता है' इस प्रकार कर्म रूपसे वह भासित होता है, वैसे ही 'प्रदीप अपने आपको प्रकाशित करता है' इस प्रकार प्रदीप भी कर्म रूपसे प्रकट होता है।
ज्ञानमें स्वसंवेदन क्रियाका सद्भाव होनेसे जो विरोध रूप दोष बताया गया है, वह भी ठीक नहीं। क्योंकि अनुभवसे सिद्ध पदार्थोंमें यह विरोध नहीं देखा जाता। जिस प्रकार 'मैं घटको जानता हूँ' इत्यादि प्रयोगोंमें कर्ता और कर्मका ज्ञान होता है, उसी तरह जाननेकी क्रियाका ज्ञान भी अवभासित होनेसे विरोध रहित है। जो ज्ञान स्वयंको नहीं जानता उस ज्ञान द्वारा ज्ञेयार्थको जानना सिद्ध नहीं होता। किसी अन्य ज्ञान द्वारा उस अज्ञात ज्ञानको जाननेकी संभावना नहीं, क्योंकि अज्ञात रूप अन्य ज्ञान प्रस्तुत अज्ञात ज्ञानको प्रत्यक्ष रूपसे नहीं जान सकता । उस अज्ञात रूप अन्य ज्ञानको जानने वाले अन्य ज्ञानको कल्पना करने पर अनवस्था दोष आता है। ज्ञेयार्थका ज्ञान होने पर ज्ञातृज्ञानका ज्ञान होता है, इस सिद्धांतके माननेसे अन्योन्याश्रय दोष आता है । क्योंकि ज्ञेयार्थका ज्ञान होने पर ज्ञातृज्ञानका ज्ञान होगा और ज्ञातृज्ञान होने पर ज्ञेयार्थका ज्ञान हो सकेगा।।
भट्टमीमांसक-यदि अर्थ (घट ) का ज्ञान न हुआ तो उस अर्थज्ञान (घटज्ञान ) के अभावमें अर्थ (घट ) की प्रकटता नहीं होगी, अतएव अर्थापत्तिसे अर्थ-( घट ) ज्ञातृज्ञान जाना जाता है । जैन-यह भी ठीक नहीं । क्योंकि जिसे अपना ज्ञापकत्व स्वरूप अज्ञात होता है, ऐसी अर्थापत्तिका ज्ञापकत्व ( अर्थज्ञातज्ञापकत्व ज्ञान ) घटित नहीं होता । अन्य अर्थापत्ति ज्ञानसे प्रकृत अर्थापत्तिके ज्ञापकत्व स्वरूपका ज्ञान होने पर अनवस्था और इतरेतराश्रय दोष आ जानेसे दोषापत्ति जैसी की तैसी बनी रहती है । अतएव जिस प्रकार ज्ञान ज्ञेयार्थके उन्मुख होता है, उसी प्रकार स्वोन्मुख भी होनेसे उसका स्वसंविदितत्व सिद्ध होता है।
१. न हि दृष्टेऽनुपपन्नं नामेति न्यायात् ।
२. 'पुष्टो देवदत्तो दिवा न भुङ्क्ते' इति वाक्ये पुष्टत्वान्यथानुपपत्त्या यथा रात्रिभोजनं कल्प्यते तथात्र घटज्ञानं विना घटप्राकटय नोपलभ्यत इति घटप्राकटयान्यथानुपपत्त्या घटज्ञानं कल्प्यते ।
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