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________________ १०४ श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १२ बोधस्यापि तत्सिद्धिः । विपर्यये दूषणमाह । नार्थकथान्यथा त्विति । अन्यथेति-अर्थप्रकाशने ऽविवादाद्, ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वानभ्युपगमेऽर्थकथैव न स्यात् । अर्थकथा-पदार्थसम्बन्धिनी वार्ता, सदसद्रूपात्मकं स्वरूपमिति यावत् । तुशब्दोऽवधारणे भिन्नक्रमश्च स चार्थकथया सह योजित एव । यदि हि ज्ञानं स्वसंविदितं नेष्यते, तदा तेनात्मज्ञानाय ज्ञानान्तरमपेक्षणीयं तेनाप्यपरमित्याद्यनवस्था। ततो ज्ञानं तावत् स्वावबोधव्यग्रतासग्नम् । अर्थस्तु जडतया स्वरूपज्ञापनासमर्थ इति को नामार्थस्य कथामपि कथयेत् । तथापि एवं ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वे युक्त्या घटमानेऽपि, परे-तीर्थान्तरीयाः, ज्ञानं-कर्मतापन्नम्, अनात्मनिष्ठं न विद्यते आत्मनः स्वस्य निष्ठा निश्चयो यस्य तदनात्मनिष्ठम् , अस्वसंविदितमित्यर्थः, प्रपेदिरे-प्रपन्नाः कुतः इत्याह । परेभ्यो भयतः, परे-पूर्वपक्षवादिनः, तेभ्यः सकाशात् ज्ञानस्य स्वसंविदितत्वं नोपपद्यते, स्वात्मनि क्रियाविरोधादित्युपालम्भसम्भावनासम्भवं यद्भयं तस्मात् तदाश्रित्येत्यर्थः॥ __इत्थमक्षरगमनिकां विधाय भावार्थः प्रपञ्च्यते । भाट्टास्तावदिदं वदन्ति । यत् ज्ञानं स्वसंविदितं न भवति, स्वात्मनि क्रियाविरोधात् । न हि सुशिक्षितोऽपि नटबटुः स्वस्कन्धमधिरोद्धं पटः, न च सुतीक्ष्णाप्यसिधारा स्वं छत्तुमाहितव्यापारा । ततश्च परोक्षमेव ज्ञानमिति । तदेतन्न सम्यक् । यतः किमुत्पत्तिः स्वात्मनि विरुध्यते ज्ञप्तिर्वा ? यद्युत्पत्तिः सा विरुध्यताम् । नहि वयमपि ज्ञानमात्मानमत्पादयतीति मन्यामहे । अथ ज्ञप्तिः नेयमात्मनि विरुद्धा। तदात्मनैव ज्ञानस्य स्वहेतुभ्य उत्पादात् । प्रकाशात्मनेव प्रदीपालोकस्य । अथ प्रकाशात्मैव प्रदीपालोक उत्पन्न इति परप्रकाशोऽस्तु। आत्मानमप्येतावन्मात्रेणैव प्रकाशयतीति कोऽयं न्यायः इति चेत्, तत्किं तेन वराकेणाप्रकाशितेनैव स्थातव्यम्, आलोकान्तराद् वास्य प्रकाशेन भवितव्यम् । प्रथमे प्रत्यक्षबाधः। द्वितीयेऽपि सैवानवस्थापत्तिश्च ॥ और दूसरेके लिये तीसरे ज्ञानकी आवश्यकता होनेसे अनवस्था दोष मानना पड़ेगा। इसलिये जब ज्ञान ही अपने आपको नहीं जान सकता, तो फिर जड़ रूप पदार्थोंके ज्ञान कैसे हो सकता है ? अतएव पदार्थक विषयमें कोई बात करना भी असंभव हो जायगा। इस प्रकार युक्तिसे ज्ञानके स्वसंवेदन रूप सिद्ध होनेपर भी 'आत्मामें क्रियाके विरोध होनेसे ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं हो सकता'-दूसरे वादियोंके इस उपालंभके भयसे भट्टमतके अनुयायी ज्ञानको स्वप्रकाशक नहीं मानते। भट्ट मीमांसक-ज्ञान स्वप्रकाशक नहीं होता, वह पहले नहीं जाने हुए पदार्थोको ही जानता है। प्रकाश होना क्रिया है, इसलिये कोई भी क्रिया स्वयं ही अपना विषय नहीं हो सकती। जैसे चतुरसे चतुर नट भी स्वयं अपने कंधेपर नहीं चढ़ सकता, तथा पैनीसे पैनी तलवारको धार भी अपने आपको नहीं काट सकती, वैसे ही ज्ञानमें भी क्रिया होना संभव नहीं है, अतएव ज्ञान परोक्ष ही है। जैन-यह ठीक नहीं। हम पूछते है, ज्ञानमें ज्ञानकी उत्पत्ति होनेसे विरोध आता है ? अथवा ज्ञानमें जाननेको क्रियाकी (ज्ञप्तिकी ) उत्पत्ति होने में विरोध आता है ? यदि ज्ञानमें ज्ञानकी उत्पत्ति होने में विरोध आता है तो भले ही आ जाय । ज्ञान अपने आपको उत्पन्न करता है, ऐसा हम भी नहीं मानते। यदि ज्ञानमें जाननेकी क्रियाकी उत्पत्ति होनेमें विरोध आता है तो यह जाननेकी क्रियाकी ज्ञानमें उत्पत्ति होना विरुद्ध नहीं है। क्योंकि जिस प्रकार प्रकाशात्मक रूपसे ही प्रदीपका प्रकाश उत्पन्न होता है, उसी प्रकार जाननेकी क्रिया रूपसे ही ज्ञान अपने हेतुओंसे उत्पन्न होता है। शंका-प्रकाशात्मक रूपसे उत्पन्न प्रदीपका आलोक दूसरे पदार्थों को प्रकाशित करने वाला भले ही हो, लेकिन इससे यह नहीं कहा जा सकता कि वह अपने आपको भी प्रकाशित करता है। समाधान-यदि ऐसी बात है तो उस विचारेको अप्रकाशित ही रहना चाहिये, अथवा किसी अन्य प्रकाशसे प्रकाशित होना चाहिये । प्रथम पक्षमें प्रत्यक्षसे बाधा आती है। द्वितीय पक्षमें वही अनवस्था दोष उपस्थित होता है।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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