SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 153
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक १२ ] स्याद्वादमञ्जरी १०३ सांप्रतं नित्यपरोक्षजानवादिनां मीमांसकभेदभट्टानाम् एकात्मसमवायिज्ञानान्तरवेद्यज्ञानवादिनां च यौगानां मतं विकुट्टयन्नाह-- स्वार्थावबोधक्षम एव बोधः प्रकाशते नार्थकथान्यथा तु । परे परेश्यो भयतस्तथापि प्रपेदिरे ज्ञातमनात्मनिष्ठम् ॥ १२ ॥ बोधो-ज्ञानं, स च स्वार्थावबोधक्षम एव प्रकाशते । स्वस्य-आत्मस्वरूपस्य, अर्थस्य च पदार्थस्य योऽवबोधः-परिच्छेदस्तत्र,क्षम एव-समर्थ एव प्रतिभासते इत्ययोगव्यवच्छेदः। प्रकाशत इति क्रियया अवबोधस्य प्रकाशरूपत्वसिद्धेः सर्वप्रकाशानां स्वार्थप्रकाशकत्वेन, होनेवाले सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति जैसे महान् पुण्यके सामने वह नगण्य है। जिस प्रकार कोई वैद्य रोगीको अच्छा करनेके लिये नश्तर लगाना, लंघन कराना आदि दुख रूप क्रियाओंको करता हुआ भी अपने शुभ परिणामोंके कारण पुण्यका ही भागी होता है, उसी तरह जिन मन्दिरोंका निर्माण शुभ परिणामोंसे अनन्त सुखकी प्राप्तिके लिये ही किया जाता है। तथा, वेदोक्त हिंसा स्वर्गकी प्राप्तिमें कारण नहीं होती। क्योंकि वध-स्थलपर ला कर इकट्रे किये हए पशओंका करुणापूर्ण आक्रन्दन अशुभ गतिका ही कारण होता है। तथा, आप लोगोंने स्वयं यम, नियमादिको स्वर्ग पानेमें कारण बताया है। तथा, यदि यज्ञमें वध किये हुए सब पशुओंको स्वर्ग मिलने लगे, तो संसारके सभी हिंसकोंको स्वर्ग मिल जाना चाहिये । अतएव सांख्य मतके अनुयायियोंने कहा है-"यदि पशुओंको मारकर, उनके रक्तसे पृथ्वी मण्डलको सींचकर, स्वर्गकी प्राप्ति हो सकती है, तो फिर नरक जानेके लिये और भी महा भयंकर पाप करने चाहिये।" तथा यदि छोटे-छोटे मूक पशुओंके वधसे स्वर्ग मिल सकता है, तो अपने प्रिय माता-पिताकी यज्ञमें आहुति देनेसे मोक्ष मिलना चाहिये। शंका-वाक्य सामान्य और अपवादके भेदसे दो प्रकारके होते हैं। जैसे, 'न हिंस्यात् सर्वभूतानि,' अर्थात् किसी प्राणीको मत मारो, यह सामान्य वाक्य है, और 'वेदोक्त हिंसा पुण्यका कारण होती है,' यह अपवाद वाक्य है। सामान्य और अपवाद वाक्योंमें अपवाद वाक्य विशेष बलवान होता है, इसलिये वेदोक्त हिंसामें पाप नहीं है । समाधान-सामान्य और अपवाद दोनों वाक्य एक ही भावके द्योतक होने चाहिये, परन्तु प्रस्तुत प्रसंगमें अपवाद वाक्य देवता, अतिथि और पितरोंको प्रसन्न करनेके लिये है, और सामान्य वाक्य पाप और उसके फलको दूर करनेके लिये बताया गया है। तथा, देवता आदिको प्रसन्न करनेके लिये हिंसाके अतिरिक्त अन्य दूसरे उपाय आपके शस्त्रोंमें भी बतलाये हैं, फिर आप हिंसात्मक उपायोंका ही क्यों समर्थन करते हैं। (२) इस लोकमें ब्राह्मणोंको खिलाया हुआ भोजन किसी भी तरह मृत प्राणियोंको तृप्त नहीं कर सकता । इसलिये श्राद्ध करना भी धर्म नहीं है ( देखिये व्याख्या)। (३) वर्णात्मक वेद तालु आदिसे उत्पन्न होता है, और तालु आदि स्थान पुरुषके ही संभव हैं। तथा, श्रुतिके तात्पर्यको समझानेके लिये भी किसी वक्ताकी आवश्यकता है, अतएव वेदको पौरुषेय मानना ही युक्तियुक्त है। अब ज्ञानको प्रत्यक्ष न मान कर उसे नित्य परोक्ष माननेवाले भट्ट मीमांसक, तथा एक ज्ञानको अन्य ज्ञानोंसे संवेद्य स्वीकार करनेवाले न्याय-वैशेषिक लोगोंके मतको दूषित सिद्ध करते हुए कहते हैं श्लोकार्थ-ज्ञान अपनेको और दूसरे पदार्थों को जाननेमें समर्थ ही है । यदि वह स्वरूप-प्रकाशक न हो तो पदार्थ सम्बन्धी कथन प्रकट नहीं हो सकता। तथापि ज्ञानके स्वपर-प्रकाशक होने पर भी पूर्वपक्ष वादियोंके भयसे अन्य लोग ज्ञानको आत्मनिष्ठ स्वीकार नहीं करते। व्याख्यार्थ-जिस प्रकार दीपक अपने और दूसरे पदार्थोंको प्रकाशित करता है, वैसे ही ज्ञान निज और पर पदार्थोको जानता है। यदि ज्ञानको स्वसंविदित न माना जाय, तो पदार्थोंकी अस्ति-नास्ति रूप व्यवस्था नहीं बन सकती। क्योंकि यदि ज्ञान स्वसंवेदन रूप नहीं हो, तो एक ज्ञानके जाननेके लिये दूसरा
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy