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श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [ अन्य. यो. व्य. श्लोक ११
अन्नाग्निकार्यशब्दवाच्यस्य यागादिविधेरुपायान्तरैरपि लभ्यानां संपदामेव हेतुत्वं वदन्नाचार्यः तस्य सुर्गातिहेतुत्वमर्थात् कदर्थितवानेव । तथा च स एव भावाग्निहोत्रं ज्ञानपालीत्यादिम्लोकैः स्थापितवान् ॥
तदेवं स्थिते तेपां वादिनां चेष्टामुपमया दूपयति स्वपुत्रेत्यादि । परेषां भवत्प्रणीतवचनपराङ्मुखानां स्फुरितं — चेष्टितम्, स्वपुत्रघाताद् नृपतित्व लिप्सासब्रह्मचारिनिजसुतनिपातेन राज्यप्राप्तिमनोरथसदृशम् । यथा किल कश्चिदविपश्चित् पुरुषः परुषाशयतया निजमङ्गजं व्यापाद्य राज्यश्रियं प्राप्तुमीहते । न च तस्य तत्प्राप्तावपि पुत्रघातपातककलङ्कपङ्कः क्वचिदपयाति । एवं वेदविहितहिंसया देवतादिप्रीतिसिद्धावपि, हिंसासमुत्थं दुष्कृतं न खलु पराहन्यते । अत्र च लिप्साशब्दं प्रयुञ्जानः स्तुतिकारो ज्ञापयति यथा तस्य दुराशयस्यासदृशतादृशदुष्कर्स निर्माण निर्मूलितसत्कर्मणो राज्यप्राप्तौ केवलं समीहामात्रमेव, न पुनस्तत्सिद्धिः । एवं तेषां दुर्वादिनां वेदविहितां हिंसामनुतिष्ठतामपि देवतादिपरितोपणे मनोराज्यमेव, न पुनस्तेपामुत्तमजनपूज्यत्वमिन्द्रादिदिवौकसां च तृप्तिः, प्रागुक्तयुक्त्या निराकृतत्वात् ॥ इति काव्यार्थः ।। ११ ।।
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यहाँ व्यास ऋषिने 'अग्निकार्य' शब्दसे याग आदिके विधानको केवल सम्पदाओंका ही कारण माना है, सुगतिका कारण नहीं बताया । तथा 'ज्ञानपालि' आदि श्लोकोंसे व्यास ऋपि भाव - अग्निहोत्र ( भावयज्ञ ) का प्रतिपादन कर चुके हैं ।
अतएव जैसे कोई मूर्ख पुरुष कठोर स्वभावके कारण अपने पुत्रका वध करके राज्यको प्राप्त करना चाहता है, और राज्य पानेपर वह पुत्रवधके पापसे मुक्त नहीं होता, इसी प्रकार याज्ञिक लोग वेदोक्त हिंसाके द्वारा देवता आदिको प्रसन्न करके स्वर्गको प्राप्त करना चाहते हैं, परंतु यदि हिंसाके द्वारा देवता आदि प्रसन्न होते भी हों, तो भी याज्ञिक लोग हिंसाजन्य पापसे मुक्त नहीं हो सकते । यहाँ 'लिप्सा' शब्दसे स्तुतिकार कहना चाहते हैं कि जिस प्रकार अपने पुत्रका वध करनेवाले पापी पुरुपको राज्यकी प्राप्ति नहीं होती, वह केवल राज्यको पाने की इच्छा मात्र ही करता रहता है, उसी तरह वेदोक्त हिंसाका अनुष्ठान करते हुए भी हिंसासे देवता आदिको प्रसन्न करना केवल इच्छा मात्र । वास्तवमें न तो हिंसासे देव लोग प्रसन्न होते हैं, और न हिंसक पुरुषोंकी जनसमाजमें कोई प्रतिष्ठा ही बढ़ती है, इसका युक्तिपूर्वक खंडन किया जा चुका है ।। यह श्लोकका अर्थ है ॥ ११ ॥
भावार्थ - (१) इस इलोकमें वैदिकों की हिंसाका खण्डन किया गया है। वैदिक — वेद प्रतिपादित हिंसा पुण्यका कारण है, क्योंकि उस हिंसासे प्रसन्न होकर देवता वृष्टि करते हैं, अतिथि दया दिखलाते हैं, और पितर संतानकी वृद्धि करते हैं । जैन -- किसी भी प्रकारकी हिंसा धर्मका कारण नहीं हो सकती । यदि हिंसा धर्मका कारण हो, तो वह हिंसा नहीं कही जा सकती । तथा, वेदद्वारा प्रतिपादित हिंसा हिंसा नहीं है, यह कहने में भी प्रत्यक्ष विरोध आता है । मंत्र आदिके बलसे वेदोक्त हिंसा पापका कारण नहीं होती, और इस प्रकारकी हिंसासे स्वर्गं मिलता है, यह कहना भी असत्य । क्योंकि मंत्रोंको पढ़ पढ़कर पशुओंके वध करने में भी मूक पशु अनन्त वेदनासे छटपटाते हुए देखे जाते हैं । वेदोक्त रीतिसे वध किये हुए पशुओंको स्वगकी प्राप्ति होती है, इसमें भी कोई प्रमाण न होनेसे यह बात विश्वसनीय नहीं है । तथा, जिस प्रकार विवाह, गर्भाधान आदि कार्यों में वेदोक्त मंत्रविधिके प्रयोग करनेपर भी इष्टकी सिद्धि नहीं होती, उसी तरह मंत्रसे संस्कृत हिंसासे भी स्वर्ग नहीं मिलता ।
शंका- जिस प्रकार जैन मन्दिरोंके निर्माण करनेमें त्रस और स्थावर जीवोंकी हिंसा होनेपर भी जैन लोग मन्दिरोंके बनानेमें पुण्य समझते हैं, उसी तरह वेदोंमें प्रतिपादित हिंसा भी पुण्यका ही कारण होती है । समाधान —– जैन मन्दिरोंके निर्माणमें हिंसा अवश्य होती है, परन्तु मन्दिर में जिनप्रतिमाके दर्शनसे उत्पन्न