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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ११] स्याद्वादमञ्जरी १०१ इति वचनात् । यथा वलवदादेव रिणो लङ्घनं, क्षीणधातोस्तु तद्विपर्ययः। एवं देशाद्यपेक्षया ज्वरिणोऽपि दधिपानादि योज्यम् । तथा च वैद्याः "कालाविरोधि निर्दिष्टं ज्वरादौ लङ्घनं हितम् । ____ ऋतेऽनिलश्रमक्रोधशोककामकृतज्वरान् ॥" एवं च यः पूर्वमपथ्यपरिहारो, यत्र तत्रैवावस्थान्तरे तस्यैव परिभोगः । स खलूभयोरपि तस्यैव रोगस्य शमनार्थः । इति सिद्धमेकविपयकत्वमुत्सर्गापवादयोरिति ।। भवतां चोत्सर्गोऽन्यार्थः अपवादश्चान्यार्थः "न हिंस्यात् सर्वभूतानि" इत्युत्सर्गो हि दुर्गतिनिषेधार्थः। अपवादस्तु वैदिकहिंसाविधिदेवताऽतिथिपितृप्रीतिसंपादनार्थः। अतश्च परस्परनिरपेक्षत्वे कथमुत्सर्गोऽपवादेन बाध्यते । "तुल्यबलयोर्विरोध" इति न्यायात् । भिन्नार्थत्वेऽपि तेन तद्बाधने अतिप्रसङ्गात् । न च वाच्यं वैदिकहिंसाविधिरपि स्वर्गहेतुतया दुर्गतिनिषेधार्थ एवेति । तस्योक्तयुक्त्या स्वर्गहेतुत्वनिर्लोठनात् । तमन्तरेणापि च प्रकारान्तरैरपि तत्सिद्धिभावात् गत्यन्तराभावे ह्यपवादपक्षकक्षीकारः। न च वयमेव यागविधेः सुगतिहेतुत्वं नाङ्गीकुर्महे, किन्तु भवदाप्ता अपि । यदाह व्यासमहर्षिः ___ "पूजया विपुलं राज्यमग्निकार्येण संपदः । तपः पापविशुद्धयर्थे ज्ञानं ध्यानं च मुक्तिदम् ॥" जैसे बलवान ज्वरके रोगीको लंघन स्वास्थ्यप्रद है, परन्तु क्षीणधातु ज्वरके रोगीको वही लंघन घातक होता है, इसी तरह किसी देशमें ज्वरके रोगीको दही खिलाना पथ्य समझा जाता है, परन्तु वही दही दूसरे देशके ज्वरके रोगीके लिए अपथ्य है । वैद्योंने भी कहा है "वात, श्रम, क्रोध, शोक और कामजन्य ज्वरको छोड़कर दूसरे ज्वरोंमें ग्रीष्म, शीत आदि ऋतुओंके अनुकूल लंघन करना हितकारी कहा गया है।" ___ अतएव एक रोगमें जिस अपथ्यका त्याग किया जाता है, वही अपथ्य उसी रोगकी दूसरी अवस्थामें उपादेय होता है। परन्तु एक रोगको दोनों अवस्थाओंमें अपथ्यका त्याग और अपथ्यका ग्रहण दोनों ही रोगको शमन करनेके लिए होते हैं। इसलिए उत्सर्ग और अपवाद दोनों ही विधि एक ही प्रयोजनको सिद्ध करती है, इसलिए अपवाद विधि उत्सर्ग विधिसे बलवान नहीं हो सकती। आप लोगोंके वक्तव्यमें उत्सर्ग विधि और अपवाद विधि दोनों भिन्न-भिन्न प्रयोजनोंके साधक है । जैसे, "किसी भी प्राणीकी हिंसा न करनी चाहिए," यह उत्सर्ग विधि नरक आदि कुगतियोंका निषेध करनेके लिए बतायी गयी है। तथा, "वेदोक्त हिंसा हिंसा नहीं है," यह अपवाद विधि देवता, अतिथि और पितरोंको प्रसन्न करनेके लिए कही गयी है। इस प्रकार उत्सर्ग और अपवाद दोनों एक दूसरेसे निरपेक्ष हैं, अतएव उत्सर्ग विधि अपवाद विधिसे बाधित नहीं हो सकती। "तुल्य बल होनेपर ही विरोध होता है," इस न्यायसे उत्सर्ग और अपवादके भिन्न-भिन्न प्रयोजनोंके सिद्ध करनेपर भी उत्सर्ग और अपवादमें विरोध नहीं हो सकता। यदि आप लोग कहें कि वैदिक हिंसा भी स्वर्गका कारण है, उससे भी दुर्गतिका निषेध होता है, अतएव उत्सर्ग और अपवाद एक ही प्रयोजनके साधक हैं, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि वैदिक हिंसा स्वर्गका कारण नहीं हो सकती, इसका हम खण्डन कर आये हैं। वैदिक हिंसाके विना अन्य साधनोंसे भी स्वर्गकी प्राप्ति होती है। यदि स्वर्गकी प्राप्तिके लिए अन्य साधन न होते, तो आप वैदिक हिंसासे स्वर्ग पानेके लिए अपवाद विधि स्वीकार कर सकते थे। परन्तु आपने स्वयं यम, नियम आदिको स्वर्गका कारण माना है ( देखिये गौतमधर्मसूत्र, पातंजलयोगसूत्र, मनुस्मृति आदि )। तथा, केवल हम जैन लोग ही वेदोक्त यज्ञ विधानका निषेध नहीं करते, आप लोगोंके पूज्य व्यास जैसे ऋषियोंने भी कहा है "पूजासे विपुल राज्य, अग्निकार्य (यज्ञ) आदिसे सम्पदा, तपसे पापोंकी शुद्धि तथा ज्ञान और ध्यानसे मोक्ष मिलता है।"
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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