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________________ १०० श्रीमद्रराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ११ इति परमाशङ्कय स्तुतिकार आह। नोत्सृष्टमित्यादि। अन्यार्थमिति मध्यवर्ति पदं डमरुकमणिन्यायेनो भयत्रापि सम्बन्धनीयम् । अन्यार्थमुत्सृष्टम्-अन्यस्मै कार्याय प्रयुक्तम्-- उत्सर्गवाक्यम् , अन्यार्थप्रयुक्तेन वाक्येन नापोद्यते-नापवादगोचरीक्रियते । यमेवार्थमाश्रित्य शास्त्रेषुत्सर्गः प्रवर्तते, तमेवार्थमाश्रित्यापवादोऽपि प्रवर्तते तयोनिम्नोन्नतादिव्यवहारवत् परस्परसापेक्षत्वेनैकार्थसाधनविषयत्वात् । यथा जैनानां संयमपरिपालनार्थ नवकोटिविशुद्धाहारग्रहणमुत्सर्गः । तथाविधद्रव्यक्षेत्रकालभावापत्सु च निपतितस्य गत्यन्तराभावे पंचकादियतनया अनेषणीयादिग्रहणमपवादः । सोऽपि च संयमपरिपालनार्थमेव । न च मरणैकशरणस्य गत्यन्तराभावोऽसिद्ध इति वाच्यम् । "सव्वत्थ संजमं संजमाओ अप्पाणमेव रक्खिज्जा। मुच्चइ अइवायाओ पुणो विसोही न याऽविरई" ॥ इत्यागमात् ॥ तथा आयुर्वेदेऽपि यमेवैकं रोगमधिकृत्य कस्याञ्चिदवस्थायां किञ्चिद्वस्त्वपथ्यं, तदेवावस्थान्तरे तत्रैव रोगे पथ्यम् "उत्पद्यते हि सावस्था देशकालामयान् प्रति । यस्यामकार्य कार्य स्यात् कर्म कार्य तु वर्जयेत् ॥" समाधान-इस प्रकार अन्य वादियोंको शंका उपस्थित कर स्तुतिकारने 'नोत्सृष्टमित्यादि' कहा है। 'अन्यार्थम्' इस मध्यवर्ती पदको डमरुकमणि न्यायसे दोनों वाक्योंके साथ जोड़ना चाहिये। किसी एक कार्यके लिये प्रयुक्त किया गया उत्सर्ग वाक्य उससे भिन्न कार्यके लिये प्रयुक्त किये गये वाक्यके द्वारा अपवादका विषय नहीं बनाया जा सकता । जिस कार्यके लिये शास्त्रोंमें उत्सर्ग ( वाक्य ) प्रवृत्त होता है, उसी कार्यके लिये अपवाद ( वाक्य ) भी प्रवृत्त होता है । क्योंकि अच्छे और बुरे आदि व्यवहारके समान परस्पर सापेक्ष रूपसे एक ही अर्थकी सिद्धि करना उनका विषय है । जिस प्रकार जैन मुनियोंके मन-वचन-काय और कृत-कारितअनुमोदन रूप नव कोटिसे विशुद्ध आहारग्रहण रूप उत्सर्ग संयमकी रक्षाके लिये होता है, उसी प्रकार द्रव्य क्षेत्र, काल और भाव-जन्य आपदाओंसे ग्रस्त मुनिके यदि उसे अन्य कोई उपाय सूझ न पड़े, तो वह पंच कोटिसे विशुद्ध अभक्ष्य, उद्दिष्ट आदि आहारका ग्रहण कर सकता है, जो अपवाद है। वह भी केवल संयमकी रक्षाके लिये ही है । क्योंकि मरणासन्न मुनिके अपवाद मार्गका अवलम्बन करनेके सिवाय और कोई मार्ग नहीं है । यदि कहो, कि मरणासन्न मुनिके भी अन्य उपायका अभाव असिद्ध है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि "मुनिको सर्वत्र संयमकी रक्षा करना चाहिए। संयमकी अपेक्षा अपनी ही रक्षा करनी चाहिए । इस तरह मुनि संयमभ्रष्टतासे मुक्त हो जाता है। वह फिरसे विशुद्ध हो सकता है, और वह अविरतिका भागी नहीं होता।" ऐसा आगमका वचन है। __ आयुर्वेदमें भी जो वस्तु रोगकी एक अवस्थामें अपथ्य है, वही दूसरी अवस्थामें पथ्य कही गयी है। कहा भी है "देश और कालसे उत्पन्न होनेवाले रोगोंमें न करने योग्य कार्योंको करना पड़ता है, और करने योग्य कार्योको छोड़ना पड़ता है।" १. डमरुमध्ये प्रतिबद्धो मणिरेक एव सन् डमरुविचाले तदुभयाङ्गसंबद्धो भवति तद्वदेकमेवान्यार्थमिति पदमुभयत्र संबध्यते । अयमेव न्यायो देहलीदीपन्याय इत्यप्यभिधीयते । २. छाया-सर्वत्र संयम संयमादात्मानमेव रक्षेत् । मुच्यतेऽतिपातात्पुनर्विशुद्धिर्न चाविरतिः॥ निशीथचूर्णीपीठिकायां ४५१ इत्यस्य चूर्णी ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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