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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ११] स्याद्वादमञ्जरी "ताल्वादिजन्मा ननु वर्णवर्गो वर्णात्मको वेद इति स्फुटं च । पुंसश्च ताल्बादि ततः कथं स्यादपौरुपेयोऽयमिति प्रतीतिः" ।। श्रुतेरपौरुषेयत्वमुररीकृत्यापि तावद्भवद्भिरपि तदर्थव्याख्यानं पौरुषेयमेवाङ्गीक्रियते । अन्यथा “अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः' इत्यस्य श्वमांस भक्षयेदिति किं नार्थः। नियामकाभावात् । ततो वरं सूत्रमपि पौरुपेयमभ्युपगतम् । अस्तु वा अपौरुषेयः, तथापि तस्य न प्रामाण्यम् । आप्तपुरुपाधीना हि वाचां प्रमाणतेति । एवं च तस्याप्रामाण्ये, तदुक्तस्तदनुपातिस्मृतिप्रतिपादितश्च हिंसात्मको यागश्रद्धादिविधिः प्रामाण्यविधुर एवेति ॥ अथ योऽयं "न हिंस्यात् सर्वभूतानि"२ इत्यादिना हिंसानिषेधः स औत्सर्गिको मार्गः, सामान्यतो विधिरित्यर्थः। वेदविहिता तु हिंसा अपवादपदम, विशेषतो विधिरित्यर्थः। ततश्चापवादेनोत्सर्गस्य बाधितत्वाद् न श्रौतो हिंसाविधिर्दोषाय । "उत्सर्गापवादयोरपवादो विधिबलीयान्" इति न्यायात् । भवतामपि हि न खल्वेकान्तेन हिंसानिवेधः। तत्तत्कारणे जाते पृथिव्यादिप्रतिसेवनानामनुज्ञानात् । ग्लानाद्यसंस्तरे आधाकर्मादि ग्रहणभणनाच्च । अपवादपदं च याज्ञिकी हिंसा, देवतादिप्रीते, पुष्टालम्बनत्वात् ॥ "वर्णोंका समूह निश्चय ही तालु आदिसे उत्पन्न होता है, तथा वेद वर्णात्मक है। तालु आदि स्थान पुरुषके ही होते हैं, इसलिये वेद अपौरुपेय नहीं हो सकता।" तथा, श्रुतिको अपौरुपेय मान कर भी आप लोगोंने श्रुतिके व्याख्यानको पौरुषेय ही माना है। यदि श्रुतिके अर्थका व्याख्यान पौरुषेय न मानो तो "अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः" (स्वर्गकी इच्छा रखनेवाला अग्निहोत्र यज्ञकी आहुति दे ) इस श्रुतिका यह अर्थ भी किया जा सकता है कि "स्वर्गके इच्छुकको कुत्तेके मांसका भक्षण करना चाहिये" (अग्निहा श्वा तस्य उत्रं मांसं जुहुयात् भक्षयेत्) । क्योंकि यदि श्रुतिका व्याख्याता पुरुष नहीं है, तो अमुक श्रुतिका अमुक ही अर्थ होता है, अन्य नहीं, इसका कोई नियम न रह जायेगा । अतएव श्रुतिके अर्थकी तरह श्रुतिको भी पौरुषेय ही स्वीकार करना चाहिये। अथवा, वेदको यदि अपौरुषेय मान भी लें तो वह प्रमाण नहीं हो सकता। क्योंकि वेदका प्रामाण्य भी आप्त पुरुषोंके वचनोंके ऊपर ही अवलम्बित है। इस प्रकार वेदके अप्रामाण्य होनेपर वद और स्मृति आदि द्वारा प्रतिपादित हिंसात्मक याग, श्राद्ध आदिका विधान भी अप्रामाण्य ही मानना होगा। शंका--( उत्सर्ग-सामान्य और अपवादके भेदसे विधि दो प्रकारकी होती है)। प्रस्तुत प्रसंगमें "किसी जीवकी हिंसा न करो (मा हिंस्यात् सर्वभूतानि )" यह सामान्य विधि है, तथा "वेदविहित हिंसा पापके लिये नहीं होती" यह अपवाद विधि है। अतएव सामान्य और अपवाद विधिमें अपवाद विधिके बलवान होनेके कारण वेदोक्त हिंसा दोषपूर्ण नहीं है। कहा भी है-"उत्सर्ग और अपवाद विधिमें अपवाद विधि ही बलवान् होती है ।" तथा जैन भी हिंसाका सर्वथा निषेध नहीं करते, क्योंकि अमुक कारणोंके उपस्थित होनेपर पृथिवी आदिके वध करनेकी आज्ञा जैन शास्त्रोंमें भी दी गई है। तथा, सामान्य रूपसे साधुओंको उद्दिष्ट भोजनके त्यागकी आज्ञा होनेपर भी, रोग आदिके कारण संयमका पालन करनेमें असमर्थ मुनियोंके लिए उद्दिष्ट भोजन ( आधाकर्म ) ग्रहण करनेकी आज्ञा जैन शास्त्रोंने दी है। अतएव सामान्यसे हिंसाका निषेध करके भी देवता आदिको प्रसन्न करनेके लिये हमारे शास्त्रोंमें यज्ञ सम्बन्धी हिंसाका विधान अपवाद विधिसे ही किया गया समझना चाहिये। १. तैत्तरीयसंहिता। २. छन्दोग्य उ. ८। ३. हेमहंसगणिसमुच्चितहेमव्याकरणस्थन्यायः । 'मा हिंस्यात् सर्वभूतानि' इत्युत्सर्गस्य 'वायव्यं श्वेतमालभेत' इति शास्त्रमपवादः । ४. संयमानिर्वाहः । ५. आधाय साधूश्चेतसि प्रणिधाय यत्क्रियते भक्तादि तदाधाकर्म। पृषोदरादित्वादिति यलोपः। आधानं साधुनिमित्तं चेतसः प्रणिधानं यथामुकस्य साधो कारणेन मया भक्तादि पचनीयमिति । आधया कर्म पाकादिक्रिया आधाकर्म । तद्योगाद् भक्ताद्यपि आधाकर्म ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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