SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ११ "औषध्यः पशवो वृक्षास्तिर्यञ्चः पक्षिणस्तथा। ___ यज्ञार्थं निधनं प्राप्ताः प्राप्नुवन्त्युच्छ्रितं पुनः" ॥' इत्यादि । नैवम् । तस्य पौरुपेयापौरुषेयविकल्पाभ्यां निराकरिष्यमाणत्वात् ॥ न च श्रोतेन विधिना पशुविशसनविधायिनां स्वगावाप्तिरुपकार इति वाच्यम । यदि हि हिंसयाऽपि स्वर्गप्राप्तिः स्यात् , तर्हि बाढं पिहिता नरकपुरप्रतोल्यः । शौनिकादीनामपि स्वर्गप्राप्तिप्रसङ्गात् । तथा च पठन्ति परमार्षाः "यूपं छित्त्वा पशून् हत्वा कृत्वा रुधिरकर्दमम् । ___ यद्येवं गम्यते स्वर्गे नरके केन गम्यते" ॥ किञ्च, अपरिचितास्पष्टचैतन्यानुपकारिपशुहिंसनेनापि यदि त्रिदिवपदवीप्राप्तिः, तदा परिचितस्पष्टचैतन्यपरमोपकारिमातापित्रादिव्यापादनेन यज्ञकारिणामधिकतरपदप्राप्तिः प्रसज्यते । अथ "अचिन्त्यो हि मणिमन्त्रौषधीनां प्रभावः" इति वचनाद् वैदिकमन्त्राणामचिन्त्यप्रभावत्वात् तत्संस्कृतपशुवधे संभवत्येव स्वर्गप्राप्तिः, इति चेत् । न । इह लोके विवाहगर्भाधानजातकर्मादिषु तन्मन्त्राणां व्यभिचारोपलम्भाद् अदृष्टे स्वर्गादावपि तद्वयभिचारोऽनुमीयते । दृश्यन्ते हि वेदोक्तमन्त्रसंस्कारविशिष्टेभ्योऽपि विवाहादिभ्योऽनन्तरं वैधव्याल्पायुष्कतादारिद्रयाद्युपद्रवविधुराः परःशताः। अपरे च मन्त्रसंस्कारं विना कृतेभ्योऽपि तेभ्योऽनन्तरं तद्विपरीताः। अथ तत्र क्रियावैगुण्यं विसंवादहेतुः, इति चेत् । न । संशयानिवृत्तेः । किं तत्र क्रियावैगुण्यात् फले विसंवादः, किं वा मन्त्राणामसामर्थ्याद्, इति न निश्चयः। तेषां फलेनाविनाभावासिद्धेः॥ "औषधि, पशु, वृक्ष, तिर्यच और पक्षी यज्ञमें निधनको प्राप्त होकर उच्च गतिको प्राप्त करते हैं।" इत्यादि। ___अतएव, आगमसे इसकी प्रमाणता सिद्ध होती है; यह भी ठीक नहीं। क्योंकि 'आगम पौरुपेय है या अपौरुषेय' ? इन विकल्पोंके द्वारा आपके द्वारा मान्य आगमका आगे निराकरण किया जायेगा। ( देखिये इसी कारिकाकी व्याख्या)। वेदोक्त विधिसे पशुओंको मारनेसे स्वर्गकी प्राप्ति रूप उपकार होता है, यह कथन सत्य नहीं है। क्योंकि यदि हिंसासे स्वर्गकी प्राप्ति होने लगे तो नरकद्वारके मुख्य मार्गको बन्द ही कर देना होगा, और संसारके सभी कसाई स्वर्गमें पहुंच जायेंगे। सांख्य लोगोंने कहा भी है "यदि यूप ( यज्ञमें पशुओंको बांधनेकी लकड़ी) को काट करके, पशुओंका वध करके, और रक्तसे पृथ्वीका सिंचन करके स्वर्गकी प्राप्ति हो सकती है, तो फिर नरक जानेके लिए कौन-सा मार्ग बचेगा ?" __ तथा, यदि अपरिचित और अस्पष्ट चेतनायुक्त तथा किसी प्रकारका उपकार न करनेवाले मूक प्राणियोंके वधसे भी स्वर्गकी प्राप्ति होना सम्भव है, तो परिचित और स्पष्ट चेतनायुक्त तथा महान उपकार करनेवाले अपने माता-पिताके वध करनेसे याज्ञिक लोगोंको स्वर्गसे भी अधिक फल मिलना चाहिए। यदि आप कहें कि "मणि, मन्त्र और औषधका प्रभाव अचिंत्य होता है," इसलिए वैदिक मन्त्रोंका भी अचिंत्य प्रभाव है, अतएव मन्त्रोंसे संस्कृत पशुओंका वध करनेसे पशुओंको स्वर्ग मिलता है, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि इस लोकमें विवाह, गर्भाधान और जातकर्म मादिमें उन मंत्रोंका व्यभिचार पाया जाता है, तथा अदृष्ट स्वर्ग आदिमें उस व्यभिचारका अनुमान किया जाता है। देखा जाता है कि वैदिक विधिके अनुसार विवाह आदिके किये जानेपर भी स्त्रियां विधवा हो जाती हैं, तथा सैकड़ों मनुष्य अल्पायु, दरिद्रता आदि उपद्रवोंसे पीड़ित रहते हैं। तथा, विवाह आदिके वैदिक मंत्र-विधिसे सम्पादित न होनेपर भी अनेक स्त्री-पुरुष आनन्दसे जीवन यापन करते हैं, इसलिए वैदिक मन्त्रोंसे संस्कृत वध किये जानेवाले पशओंको स्वर्गकी प्राप्ति स्वीकार करना ठीक नहीं है। यदि आप कहें कि मन्त्र अपना पूरा असर दिखाते हैं, लेकिन यदि मन्त्रोंको ठीक-ठीक विधि नहीं १. मनुस्मृतौ ५-४०। २. सांख्याः ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy