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अन्य. यो. व्य. श्लोक ११] स्याद्वादमञ्जरी
अथ यथा युष्मन्मते "आरोग्गबोहिलाभं समाहिवरमुत्तमं किंतु इत्यादीनां वाक्यानां लोकान्तर एव फलमिष्यते, एवमस्मदभिमतवेदवाक्यानामपि नेह जन्मनि फलमिति किं न प्रतिपद्यते । अतश्च विवाहादौ नोपालम्भावकाशः, इति चेत् । अहो वचनवैचित्री। यथा वर्तमानजन्मनि विवाहादिषु प्रयुक्तैर्मन्त्रसंस्कारैरागामिनि जन्मनि तत्फलम् , एवं द्वितीयादिजन्मान्तरेष्वपि विवाहादीनामेव प्रवृत्तिधर्माणां पुण्यहेतुत्वाङ्गीकारेऽनन्तभवानुसन्धान प्रसज्यते । एवं च न कदाचन संसारस्य परिसमाप्तिः। तथा च न कस्यचिदपवर्गप्राप्तिः। इति प्राप्तं भवदभिमतवेदस्यापर्यवसितसंसारवल्लरीमूलकन्दत्वम् । आरोग्यादिप्रार्थना तु असत्याऽमृषा भाषा परिणाम विशुद्धिकारणत्वाद् न दोषाय । तत्र हि भावारोग्यादिकमेव विवक्षितम् , तच्च चातुर्गतिकसंसारलक्षणभावरोगपरिक्षयस्वरूपत्वाद् उत्तमफलम् । तद्विषया च प्रार्थना कथमिव विवकिनामनादरणीया। न च तजन्यपरिणामविशुद्धस्तत्फलं न प्राप्यते । सर्ववादिनां भावशुद्धेरपवर्गफलसम्पादनेऽविप्रतिपत्तेरिति ॥ की जाय, तो मन्त्रोंका असर नहीं रहता, यह कथन भी ठीक नहीं। इससे संशयकी निवृत्ति नहीं होती। क्योंकि मन्त्रोंकी विधिमें वैगुण्य होनेसे मन्त्रोंका प्रमाव नष्ट हो जाता है, अथवा स्वयं मन्त्रोंमें ही प्रभाव दिखानेको असमर्थता है, यह कैसे निश्चय हो? मंत्रोंके फलसे अविनाभावकी सिद्धि नहीं होती।
शंका-जिस प्रकार जनमतमें "आरोग्य, सम्यक्त्व तथा समाधिको प्रदान करो" इत्यादि स्तुतियोंसे दूसरे लोकमें फल प्राप्ति कही जाती है, उसी तरह हमारे माने हुए वेद-वाक्योंका और विवाह आदि मन्त्रोंका भी परलोकमें ही फल मिलता है। समाधान-यदि आप लोग इस जन्ममें विवाह आदिमें प्रयुक्त मन्त्रोंका फल आगामी भवमें स्वीकार करते हैं, तो यह आपके वचनोंको विचित्रता है, और इस तरह तो दूसरे, तीसरे आदि अनेक भवोंमें मन्त्रके संस्कारोंका फल मान लेनेसे अनन्त भवोंकी उत्पत्ति माननी होगी, और इस तरह कभी संसारका अन्त न होनेसे किसीको भी मोक्ष न मिलेगा। इस प्रकार आपके द्वारा मान्य वेदको अनन्त संसारवल्लरीका मूल मानना होगा। तथा, हम लोग जो आरोग्यलाभ आदिको प्रार्थना करते हैं, वह असत्यअमृषा (व्यवहार ) भाषा द्वारा परिणामोंकी विशुद्धि करनेके लिए है, दोषके लिए नहीं । ( असत्यअमृषा भाषा आमन्त्रणी, आज्ञापनी, याचनी, प्रच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, इच्छानुकूलिका, अनभिगृहीता, अभिगृहोता, संदेहकारिणी, व्याकृता, अव्याकृताके भेदसे बारह प्रकारकी बताई गयी है । (१) 'हे देव, यहाँ आओ', इस प्रकारके वचनोंको आमन्त्रणी भाषा कहते हैं। (२) 'तुम यह करों' इस प्रकारके आज्ञासूचक वचन कहना, आज्ञापनी भाषा है । ( ३ ) 'यह दो' इस प्रकार याचनाके सूचक वचन बोलना, याचनी भाषा है । (४) अज्ञात अर्थको पूछना, प्रच्छनी भाषा है। (५)'जीव हिंसासे निवृत्त होकर चिरायुका उपभोग करते हैं। इस प्रकार शिष्योंके उपदेशसूचक बचनोंका कहना, प्रज्ञापनी भाषा है। (६) मांगनेवालेको निषेध करनेवाले वचनोंका बोलना प्रत्याख्यानी भाषा है। (७) किसी कार्यमें अपनी अनुमति देनेको इच्छानुकूलिका भाषा कहते हैं । (८) 'बहुतसे कार्योंमें जो तुम्हें अच्छा लगे वह करो' इस प्रकारके वचनोंको अनभिगृहोता भाषा कहते हैं। (९) 'बहुतसे कार्योंमें अमुक कार्य करना चाहिए, और अमुक नहीं', इस प्रकार निश्चित वचनोंके बोलनेको अभिगृहीता भाषा कहते हैं। (१०) संशय उत्पन्न करनेवाली भाषाको संदेहकारिणी भाषा कहते हैं; जैसे 'सैंधव' कहनेपर सिंधा नमक और घोड़ा दोनों पदार्थोंमें संशय उत्पन्न होता है । (११) जिससे स्पष्ट अर्थका ज्ञान हो, वह व्याकृता भाषा है । (१२) गम्भीर अथवा अस्पष्ट अर्थको बतानेवाले वचनोंको अव्याकृता भाषा कहते हैं । गोम्मटसार आदि दिगम्बर ग्रन्थोंमें असत्यअमृषा भाषाके नौ
१. छाया-आरोग्यं बोधिलाभं सामाधिवरमुत्तमं ददतु । आवश्यके २४-६ । २. आमन्त्रणी, आज्ञापनी, याचनी, प्रच्छनी, प्रज्ञापनी, प्रत्याख्यानी, इच्छानुकूलिका, अनभिगृहीता, अभिगृहीता, संदेहकारिणी, व्याकृता, अव्याकृता इति द्वादशविधा असत्याऽमृषाभाषा लोकप्रकाशे तृतीयसर्गे योगाधिकारे।