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अन्य. यो. व्य. श्लोक ११ ]
स्याद्वादमञ्जरो
"पुढवाया जवि हु होइ विणासो जिणालयाहिन्तो । तव्त्रिसया बि सुदिठ्ठिस्ल नियमओ अत्थि अणुकंपा ॥१॥ एयाहिंतो बुद्धा विरया रक्खन्ति जेण पुढवाई |
तो निव्वाणगया अवाहिया अभवमिमाणं ॥२॥ रोगसिरावेहो इव सुविज्जकिरिया व सुप्पउत्ताओ । परिणामसुंदरच्चिय चिट्ठा से बाहजोगे वि ॥ ३ ॥
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इति । वैदिकवधविधाने तु न कञ्चित्पुण्यार्जनानुगुणं गुणं पश्यामः । अथ विप्रेभ्यः पुरोडाशीदिप्रदानेन पुण्यानुबन्धी गुणोऽस्त्येव इति चेत् । न । पवित्रसुवर्णादिप्रदानमात्रेणैव पुण्योपार्जन - सम्भवात् । कृपणपशुगणव्यपरोपणसमुत्थं मांसदानं केवलं निर्घृणत्वमेव व्यनक्ति । अथ न प्रदानमात्रं पशुवधक्रियायाः फलं, किन्तु भूत्यादिकम् । यदाह श्रुतिः-- " श्वेतं वायव्यमजमालभेत भूतिकामः" इत्यादि । एतदपि व्यभिचारपिशाचग्रस्तत्वादप्रमाणमेव । भूतेश्वौपयि कान्तरैरपि साध्यत्वात् । अथ तत्र सत्रे हन्यमानानां छागादीनां प्रेत्यसद्गतिप्राप्तिरूपोऽस्त्येवोपकार इति चेत् । वाङ्मात्रमेतत् । प्रमाणाभावात् । न हि ते निहताः पशवः सद्गतिलाभमुदितमनसः कस्मैचिदागत्य तथाभूतमात्मानं कथयन्ति । अथास्त्यागमाख्यं प्रमाणम् । यथा
"यद्यपि जिनमंदिरके निर्माणमें ज़मीन खोदने, ईंट तैयार करने तथा जल सिंचन आदिके कारण पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, वनस्पति और त्रस जीवोंका घात होता है, तो भी सम्यग्दृष्टी के पृथिवी आदि जीवों के प्रति दयाका भाव रहता ही है ॥ १ ॥
जिनप्रतिमा आदिके दर्शनसे तत्त्वज्ञानको प्राप्त करनेवाले जीव पृथिवी आदि जीवोंकी रक्षा करते हैं, मोक्षगमन करते हैं और यावज्जीवन अबाधित रहते हैं ॥२॥
जिस प्रकार किसी रोगीको अच्छा करनेके लिए रोगीकी नसका छेदना, उसे लंघन कराना, कटुक औषधि देना आदि प्रयोग शुभ परिणामोंसे ही किये जाते हैं, उसी प्रकार पृथिवी आदिका वध करके भी जिनमंदिरके निर्माण करनेमें पुण्य ही होता है ||३|| "
परन्तु वेदोक्त हिंसा में हम कोई पुण्योपार्जनका कारण नहीं देखते। यदि कहो कि वेदोक्त वधके अवसरपर ब्राह्मणोंको पुरोडाश ( होमके बाद बचा हुआ द्रव्य ) आदि देने से पुण्य होता है, तो यह भी ठीक नहीं । क्योंकि पवित्र सुवर्ण आदिके दान देनेसे ही पुण्य हो सकता है, मूक पशुओंके मांसका दान करना, केवल निर्दयताका ही द्योतक है । यदि कहो कि वेदोक्त रोतिसे पशुवध करनेका फल केवल ब्राह्मणोंको पशुओंके मांसका दान करना नहीं, किन्तु उससे विभूतिकी प्राप्ति होती है । क्योंकि श्रुतिमें भी कहा है, "ऐश्वर्य प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाले पुरुषको वायु देवताके लिये श्वेत बकरेका यज्ञ करना चाहिए," आदि – यह भी व्यभिचार-पिशाचसे ग्रस्त होनेके कारण ठीक नहीं है । क्योंकि ऐश्वर्यकी प्राप्ति अन्य उपायोंसे भी हो सकती है । यदि कहो कि यज्ञमें मारे जानेवाले बकरे आदि परलोकमें स्वर्ग प्राप्त करते हैं, इसलिये प्राणियोंका उपकार होता है; यह भी ठीक नहीं। क्योंकि बकरे आदि यज्ञमें वध किये जानेके बाद स्वर्गको प्राप्त करते हैं, इसमें कोई प्रमाण नहीं हैं | क्योंकि मरनेके बाद स्वर्गमें गये हुए पशु स्वर्गसे आकर प्रसन्न मनसे वहाँके समाचारोंको नहीं सुनाते । यदि आप कहें कि आगममें लिखा है
१. छाया - पृथिव्यादीनां यद्यपि भवत्येव विनाशो जिनालयादिभ्यः । तद्विषयापि सुदृष्टेनियमतोऽस्त्यनुकम्पा ॥ ताभ्यो बुद्धा विरता रक्षन्ति येन पृथिव्यादीन् । अतो निर्वाणगता अबाधिता आभवमेषाम् ॥ रोगिशिरावेध इव सुवैद्यक्रिया इव सुप्रयुक्ता तु । परिणामसुन्दर इव चेष्टा सा बाधायोगेऽपि ॥ जिनेश्वरसूरिकृतपञ्चलिङ्गीग्रन्ये ५८-५९-६० ।
२. पुरो दाश्यते इति पुरोडाशो हुतद्रव्यावशिष्टम् । यवचूर्णनिर्मितरोटिकाविशेषः । ३. शतपथब्राह्मणे ।