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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ११ पत्तिर्भावान्तरमस्त्येवेति चेत् किमत्र प्रमाणम् । न तावत् प्रत्यक्षम् । तस्य सम्बद्धवर्तमानार्थग्राहकत्वात् । “सम्बद्धं वर्तमानं च गृह्यते चक्षुर दिना।" इति वचनात् । नाप्यनुमानम् । तत्प्रतिबद्धलिङ्गानुपलब्धेः। नाप्यागमः। तस्याद्यापि विवादास्पदत्वात् । अर्थापत्त्युपमानयोस्त्वनुमानान्तर्गततया तद्रूषणेनैव गतार्थत्वम् ॥
अथ भक्तामपि जिनायतनादिविधाने परिणामविशेषात् पृथिव्यादिजन्तुजातघातनमपि यथा पुण्याय कल्पते इति कल्पना, तथा अस्माकमपि किं नेष्यते। वेदोक्तविधिविधानरूपस्य परिणामविशेषस्य निर्विकल्पं तत्रापि भावात् । नैवम् । परिणामविशेषोऽपि स एव शुभफलो, यत्रानन्योपायत्वेन यतनयाप्रकृष्ट प्रतनुचैतन्यानां पृथिव्यादिजीवानां वधेऽपि स्वल्पपुण्यव्ययेनापरिमितसुकृतसंप्राप्तिः, न पुनरितरः। भवत्पक्षे तु सत्त्वपि तत्तच्छ्रुतिस्मृतिपुराणेतिहासप्रतिपादितेपु स्वर्गावाप्त्युपायेपु तांस्तान् देवानुद्दिश्य प्रतिप्रतीकं कर्तनकदर्थनया कान्दिशीकान् कृपणपञ्चेन्द्रियान् शौनिकाधिकं मारयतां कृत्स्नसुकृतव्ययेन दुर्गतिमेवानुकूलयतां दुर्लभः शुभपरिणामविशेषः। एवं च यं कश्चन पदार्थ किञ्चित्साधर्म्यद्वारेणैव दृष्टान्तीकुर्वतां भवतामतिप्रसङ्गः सङ्गच्छते॥
नच जिनायतनविधापनादौ प्रथिव्यादिजीववधेऽपि न गणः। तथाहि तदर्शनाद गुणानुरागितया भव्यानोंबोधिलाभैः, पूजातिशयविलोकनादिना च मनःप्रसादः, ततः समाधिः, ततश्च क्रमेण निःश्रेयसप्राप्तिरिति । तथा च भगवान् पञ्चलिङ्गीकारःआती है, तो इस कथनमें कोई प्रमाण नहीं है। प्राणियोंकी स्वर्ग-प्राप्ति प्रत्यक्ष प्रमाणसे नहीं जानी जा सकती, क्योंकि प्रत्यक्ष केवल चक्षु आदि इन्द्रियोंसे संबद्ध वर्तमान पदार्थको ही जानता है। कहा भी है "प्रत्यक्ष चक्षु आदिसे संबद्ध वर्तमान पदार्थको ही जानता है।" अनुमानसे भी प्राणियोंकी स्वर्ग-प्राप्ति सिद्ध नहीं होती, क्योंकि 'वधके अनंतर देवत्वकी प्राप्ति' साध्यके साथ अविनाभावी हेतुकी उपलब्धि नहीं होती। आगमके विवादास्पद होनेसे आगमसे भो इसकी सिद्धि नहीं हो सकती। अर्थापत्ति और उपमान अनुमानमें ही गर्भित हो जाते हैं (जैनोंकी दृष्टिमें), इसलिये अर्थापत्ति और उपमान प्रमाणसे भो वेदोक्त रीतिसे वध किये हुए प्राणियोंकी स्वर्ग-प्राप्ति सिद्ध नहीं की जा सकती।
शंका-जिस प्रकार जैनमतमें पृथिवी आदि जीवोंका घात होनेपर भी परिणाम विशेपके कारण जैन मन्दिरोंका निर्माण पुण्यरूप ही माना जाता है, उसी तरह वेदविहित हिंसामें वेदका विधि-विधानरूप विशिष्ट परिणामोंका सद्भाव होनेसे वह पुण्यका कारण होती है। समाधान--यह ठीक नहीं है। क्योंकि मंदिरोंके निर्माण करनेमें उपायांतर न होनेके कारण, सावधानीपूर्वक प्रवृत्त होते हुए भी अत्यंत अल्प ज्ञानके धारक पृथिवी आदि जीवोंका वध अनिवार्य है, तथा पृथिवी आदिके वध करनेपर अल्प पुण्यके नाश होनेसे अपरिमित पुण्यकी प्राप्ति होती है। परन्तु आप लोगोंके मतमें श्रुति, स्मृति, पुराण, इतिहासमें यम, नियमादिसे स्वर्गकी प्राप्तिका प्रतिपादन किया गया है, तथा उन उन देवी-देवताओंके उद्देश्यसे प्रत्येक मूर्तिके समक्ष अपने शरीरके काटे जानेके भयसे विह्वल, निस्सहाय पंचेन्द्रिय जीवोंको कसाईसे भी अधिक क्रूरतासे मारनेवाले पुरुषोंके समस्त पुण्यके नष्ट हो जानेके कारण दुर्गतिको ले जानेवाले परिणामोंको शुभ परिणाम कहना दुर्लभ है । अतएव थोड़ा-बहुत सादृश्य देखकर दृष्टांत बनानेसे आपके मतमें अतिप्रसंग उपस्थित होता है।
तथा पृथिवी आदि जीवोंके वध होनेपर भी जिनमंदिरके निर्माणमें पुण्य ही होता है । क्योंकि मंदिरमें जिनप्रतिमाके दर्शनसे गुणानुरागी होनेके कारण भव्य पुरुषोंको सम्यक्त्वको प्राप्ति होती है, भगवान्के पूजातिशयके विलोकनसे मन प्रफुल्लित होता है, मनकी प्रफुल्लतासे समता भाव जागृत होता है, और समता भावसे क्रमशः मोक्षको प्राप्ति होती है। पंचलिंगीकार भगवान् जिनेश्वरसूरिने कहा भी है
१. मीमांसाश्लोकवातिके ४-८४ । २. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रपरिणामेन गविष्यतीति भव्यः । ३. वोधनं वोधिः सम्यक्त्वं प्रेत्यजिनधर्मावाप्तिर्वा । ४. सम्यग्दर्शनादिका मोक्षपद्धतिः ।