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अन्य. यो. व्य. श्लोक ११]
स्याद्वादमञ्जरी
अधुना मीमांसकभेदाभिमतं वेदविहितहिंसाया धर्महेतुत्वमुपपत्तिपुरःसरं निरस्यन्नाहन धर्महेतुविहितापि हिंसा नोत्सृष्टमन्यार्थमपोद्यते च ।
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स्वपुत्रघाताद् नृपतित्वलिप्सा सब्रह्मचारि स्फुरितं परेषाम् ॥११॥ इह खल्वर्चिर्मार्गप्रेतिपक्षधूममार्गाश्रिता जैमिनीया इत्थमाचक्षते । या हिंसा गाद्धर्याद् व्यसनितया वा क्रियते सैवाधर्मानुबन्धहेतुः, प्रमादसंपादितत्वात् शौनिकलुब्ध कादीनामिव ॥ वेदविहिता तु हिंसा प्रत्युत धर्महेतुः, देवतातिथिपितॄणां प्रीतिसंपादकत्वात्, तथाविधपूजोकिया गया है । ग्रन्थकारका कहना है कि नैयायिकोंके सोलह पदार्थोंमें गिने जानेवाले छल, जाति और निग्रहस्थान सर्वथा अनुपादेय हैं, इनके ज्ञानसे मुक्ति नहीं हो सकतो । तथा मुक्ति प्राप्त करनेके लिये ज्ञान और क्रिया दोनोंकी आवश्यकता होती है, केवल सोलह पदार्थोंके ज्ञान मात्रसे मुक्ति सम्भव नहीं ।
(१) क — जो पदार्थोंके ज्ञानमें हेतु हो, उसे प्रमाण कहते हैं ( अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम् - वात्स्यायनभाष्य ) । ख – सम्यक् अनुभवको प्रमाण कहते हैं ( सम्यगनुभवसाधनं प्रमाणम् - भासर्वज्ञकृत - न्यायसार ) । नैयायिकों के ये दोनों प्रमाणके लक्षण दोषपूर्ण हैं, क्योंकि नैयायिक लोग इन्द्रिय और पदार्थोंके संनिकर्ष को ही प्रमाण मानते हैं, इन्द्रिय और पदार्थोंके सम्बन्धसे उत्पन्न होनेवाले प्रत्यक्षके करण ज्ञानको प्रमाण नहीं मानते । परन्तु दृन्द्रिय और पदार्थका सन्निकर्ष होनेपर भी ज्ञानका अभाव होनेसे पदार्थोंका ज्ञान नहीं होता । तथा 'पदार्थों के ज्ञानमें हेतु' को प्रमाण माननेपर, यदि निमित्त मात्रको ही हेतु कहा जाय तो कर्ता, कर्म आदिको भी प्रमाण मानना चाहिये । यदि 'हेतु' का अर्थ करण हो, तो फिर ज्ञानको ही प्रमाण मानना चाहिये, क्योंकि ज्ञान ही पदार्थोंके जाननेमें साधकतम है । इसलिये 'स्वपरव्यवसायिज्ञानं प्रमाणं' ही प्रमाणका निर्दोष लक्षण है ।
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(२) नैयायिकोंके आत्मा, शरीर आदिके भेदसे बारह प्रकारके प्रमेयकी मान्यता भी ठीक नहीं है । क्योंकि शरीर आदिका आत्मामें अन्तर्भाव हो जाता है, तथा प्रेत्यभाव ( पुनर्जन्म ) और अपवर्ग ( मोक्ष ) भी आत्माकी ही अवस्था हैं । तथा आत्मा प्रमेय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि वह प्रमाता है । दोष मनकी क्रिया है, उसका प्रवृत्ति अन्तर्भाव हो जाता है । दुःख और इन्द्रियार्थ फलमें गर्भित हो जाते हैं, इसे जयन्तने भी स्वीकार किया है । अतएव 'द्रव्यपर्यायात्मकं वस्तु प्रमेयं' यही प्रमेयका निर्दोष लक्षण है ।
(३) छल, जाति और निग्रहस्थान दूसरोंको केवल वंचन करनेके साधन हैं, इसलिये इन्हें तत्त्व नहीं कहा जा सकता । अतएव इनके ज्ञानसे मोक्षकी प्राप्ति नहीं हो सकती है ।
अब मीमांसकसम्मतवेदमें कही हुई हिंसा धर्मका कारण नहीं होती, इसका युक्तिपूर्वक खण्डन करते हैं-. श्लोकार्थ - वेद विहित होने पर भी हिंसा धर्मका कारण नहीं है । अन्य कार्य के लिये प्रयुक्त उत्सर्ग वाक्य उस कार्य से भिन्न कार्यके लिये प्रयुक्त वाक्यके द्वारा अपवादका विषय नहीं बनाया जा सकता। दूसरों ( अन्य मतानुयायी ) का यह प्रयत्न अपने पुत्रको मार कर राजा बननेकी इच्छाके समान है ।
व्याख्यार्थ — अचि मार्गके प्रतिपक्षी धूममार्गको स्वीकार करने वाले जैमिनीयों ( पूर्वमीमांसक ) का कथन: हिंसाजीवी व्याध आदिकी हिंसाकी तरह लोभ अथवा किसी व्यसनसे की हुई हिंसा ही पापका कारण होती है, क्योंकि वह हिंसा प्रमादसे उत्पन्न होती है। वेदोंमें प्रतिपादित हिंसा धर्मका ही कारण है, क्योंकि वेदमें अभिहित पूजा- उपचारकी तरह वेदोक्त हिंसा भी देव, अतिथि
१. अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् । तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ॥ इत्यचिर्मार्गः । अयमेवोत्तरमार्ग इत्यभिधीयते । भगवद्गीता ८ - २४ ।
२. धूमो रात्रिस्तथा कृष्णः षण्मासा दक्षिणायनम् । तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ॥ इति धूममार्ग: । अयमेव दक्षिणमार्ग इत्यप्यभिधीयते । भगवद्गीता ८-२५ ।