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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो.व्य. श्लोक ११ प्रचारवत् । न च तत्प्रीतिसंपादकत्वमसिद्धम् । कारीरीभृतियज्ञानां स्वसाध्ये वृष्टयादिफले यः खल्वव्यभिचारः, स तत्प्रीणितदेवताविशेषानुग्रहहेतुकः। एवं त्रिपुरार्णवेवर्णितच्छगलजाङ्गल होमात् परराष्ट्रवशीकृतिरपि तदनुकूलितदैवतप्रसादसंपाद्या । अतिथिप्रीतिस्तु मधुपके संस्कारादिसमास्वादजा प्रत्यक्षोपलक्ष्यैव । पितृणामपि तत्तदुपयाचितश्रद्धादिविधानेन प्रीणितात्मनां स्वसन्तानवृद्धिविधानं साक्षादेव वीक्ष्यते । आगमश्चात्र प्रमाणम् । स च देवप्रीत्यर्थमश्वमेधगोमेधनरमेधादिविधानाभिधायकः ४.५प्रतीत एव। अतिथिविपयस्तु-"महोभं वा महाजं वा श्रोत्रियायोपकल्पयेत् ।" इत्यादिः । पितृप्रीत्यर्थस्तु
"द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन त्रीन् मासान् हारिणेन तु ।
औरभ्रणाथ चतुरः शाकुनेनेह पञ्च तु" । इत्यादिः। __ एवं पराभिप्रायं हृदि संप्रधाचार्यः प्रतिविधत्ते न धर्मेत्यादि । विहितापि-वेदप्रतिपादितापि । आस्तां तावदविहिता हिंसा-प्राणिप्राणव्यपरोपणरूपा। न धर्महेतुः-न धर्मानुबन्धनिबन्धनम् । यतोऽत्र प्रकट एव स्ववचनविरोधः। तथाहि । 'हिंसा चेद् धर्महेतुः कथम्', 'धर्महेतुश्चेद् हिंसा कथम् ।' " श्रूयतां धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवावधार्यताम्" इत्यादिः। न हि भवति माता च, वन्ध्या चेति । हिंसा कारणं, धर्मस्तु तत्कार्यमिति पराभिप्रायः। न चायं निरपायः । यतो यद् यस्यान्वयव्यतिरेकावनुविधत्ते तत् तस्य कार्यम्, यथा मृत्ण्डिादेर्घटादिः। नै च धर्मो हिंसात एव भवतीति प्रातीतिकम् तपोविधानदानध्यानादीनां तदकारणत्वप्रसङ्गात् ।। और पितरोंको आनन्द देनेवाली होती है। वेदोक्त हिंसाका आनन्ददायकपना असिद्ध नहीं है, क्योंकि कारीरी ( जिस यज्ञके करनेसे वृष्टि होती है ) आदि यज्ञोंके करनेसे वृष्टिका होना देखा जाता है। वृष्टि होना यज्ञोंसे प्रसन्न हुए देवता लोगोंके अनुग्रहका ही फल है। अतएव जिस प्रकार कारीरी यज्ञसे देवता लोग प्रसन्न होकर वृष्टि करते हैं, उसी तरह वेदोक्त हिंसा भी देवताओंको आनन्द देनेवाली है। इसी प्रकार त्रिपुराणव नामक मंत्रशास्त्र सम्बन्धी ग्रन्थमें कहे हुए बकरे और हरिणका मांस होम करनेसे आनन्दित देवताओंकी कृपासे ही दूसरे देश वशमें किये जाते हैं। तथा, मधुपर्क ( दही, घी, जल, मधु और चीनीसे वना हुआ पदार्थ ) से अतिथि लोग प्रसन्न होते हैं । इसी प्रकार पितर भी श्राद्धसे प्रसन्न होकर अपनी सन्तानकी वृद्धि करते हुए देखे जाते हैं। आगममें भी कहा है, देवताओंको प्रसन्न करनेके लिये अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि यज्ञ करने चाहिये । “अतिथिको प्रसन्न करनेके लिए श्रोत्रिय ( वेदपाठी ) को बड़ा बैल अथवा घोड़ा मार कर देना चाहिये।" तथा,
"मछलीके मांससे दो, हरिणके मांससे तीन, मेढ़ेके मांससे चार, और पक्षीके मांससे पाँच मास तक पितरोंकी तृप्ति होती है।"
जैन-वेदोंमें प्रतिपादित प्राणियों के प्राणों की संहारकारक हिंसा धर्मका कारण नहीं हो सकती, क्योंकि हिंसाको धर्म प्रतिपादन करना साक्षात् अपने वचनोंका विरोध करना है। क्योंकि 'जो हिंसा है, वह धर्मका कारण नहीं हो सकती', और 'जो धर्मका कारण है, उसे हिंसा नहीं कह सकते' । कहा भी है-"धर्मका सार सुनकर उसे ग्रहण करना चाहिए । ( अपने प्रतिकूल वातोंको कभी दूसरोंके लिए न करना चाहिये)।" जिस प्रकार कोई स्त्री एक ही समय माता और बंध्या दोनों नहीं हो सकती, उसी तरह हिंसाका हिंसारूप और धर्म रूप होना परस्पर विरुद्ध है । अतएव हिंसा और धर्मको कारण और कार्य रूपसे प्रतिपादन करनेवाले
१. कं जलमृच्छतोति कारो जलदस्तमीरयति प्रेरयतीति कारीरी। २. मन्त्रशास्त्रविषयको निबन्धः । ३. दधि सर्पिः जलं क्षौद्रं सितैताभिस्तु पंचभिः:प्रोच्यते मधुपर्कस्तु सर्वदेवौधतुष्टये ।। कालिकापुराणे । ४. ऐतरेयब्राह्मणे ४; श्रौतसूत्रे । ५. मनुस्मृती पंचमाध्याये; आपस्तंबगृह्यसूत्रे । ६. एका शाखां सकल्पां वा षड्भिरङ्गरधीत्य वा। षट्कर्मनिरतो विप्रः श्रोत्रियो नाम धर्मवित् ॥ ७. याज्ञवल्क्यस्मृतौ आचाराध्यायः १०९। ८. मनुस्मृतिः ३-२६८ । ९. 'श्रूयता धर्मसर्वस्वं श्रुत्वा चैवोपधारयेत्' । चाणक्यराजनीतिशास्त्रे १-७ ।