SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 136
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक १० प्रतिज्ञान्तर कहते हैं। जैसे, 'शब्द अनित्य है, क्योंकि वह इन्द्रियका विषय है, घटकी तरह,' इस अनुमानमें प्रतिनाके खण्डित होनेपर यह कथन करना कि सामान्य जो इन्द्रियोंका विषय होकर नित्य है, वह सर्वव्यापक है, परन्तु शब्द तो घटके समान असर्वगत है, इसलिये उसीके समान अनित्य भी है। यहाँ शब्दको असर्वगत कह कर दूसरी प्रतिज्ञा की गई, लेकिन इससे पूर्वोक्त व्यभिचार दोषका परिहार नहीं होता। ["(३) प्रतिज्ञा और हेतुका विरोध होना, प्रतिज्ञाविरोध है। जैसे, 'गुण, द्रव्यसे भिन्न है, क्योंकि द्रव्यसे पृथक नहीं होता' । किन्तु पृथक् प्रतीत न होनेसे अभिन्नता सिद्ध होती है, न कि भिन्नता। इसे विरुद्ध हेत्वाभासमें भी सम्मिलित किया जा सकता है । (४) अपनी प्रतिज्ञाका त्याग कर देना, प्रतिज्ञासंन्यास है । जैसे 'मैंने ऐसा कब कहा !' इत्यादि । (५) हेतुके खण्डित हो जानेपर उसमें कुछ जोड़ देना, हेत्वन्तर है । जैसे, 'शब्द अनित्य है, क्योंकि इन्द्रियका विषय है। यहां घटत्वमें दोष उपस्थित होने पर हेतुको बढ़ा दिया कि सामान्यवाला हो कर जो इन्द्रियका विषय है। किन्तु घटत्व स्वयं सामान्य तो है, परन्तु सामान्यवाला नहीं है। यदि इस तरह हेतुमें मनमानी वृद्धि होती रहे, तो व्यभिचारी हेतुमें व्यभिचार दोष न दिखलाया जा सकेगा। क्योंकि ज्योंही व्यभिचार दिखलाया गया कि एक विशेषण जोड़ दिया। (६) प्रकृत विषय (जिस विषयपर शास्त्रार्थ हो रहा है ) से सम्बन्ध न रखनेवाला कथन, अर्थान्तर है। जैसे वादोने कोई हेतु दिया और उसका खण्डन न हो सका, तो कहने लगे 'हेतु किस भापाका शब्द है, किस धातुसे निकला है ?' इत्यादि । (७) अर्थ रहित शब्दोंका उच्चारण करने लगना, निरर्थक है। जैसे, 'शब्द अनित्य है क्योंकि क ख ग घ ङ है; जैसे, च छ ज झ ञ आदि। (८) ऐसे शब्दोंका प्रयोग करना कि तीन तीन बार कहनेपर भी जिनका अर्थ न प्रतिवादी समझे, न कोई सभासद् समझे, अविज्ञातार्थ है । जैसे, 'जंगलके राजाके आकारवाले के खाद्यके शत्रुका शत्रु यहाँ है।' जंगलका राजा शेर, उसके आकारवाला बिलाव, उसका खाद्य मूषक, उसका शत्रु सर्प, उसका शत्रु मोर । (९) पूर्वापर सम्बन्धको छोड़ कर अंडबंड बकना, अपार्थक है । जैसे, 'कलकत्तेमें पानी बरसा, कौओंके दांत नहीं होते, बम्बई बड़ा शहर है, यहाँ दश वृक्ष लगे हैं, मेरा कोट बिगड़ गया' इत्यादि । इसे निरर्थक बकवास ही समझना चाहिये । (१०) प्रतिज्ञा आदिका बेसिलसिले प्रयोग करना, अप्राप्तकाल है। (११) बिना अनुवादके शब्द और अर्थको फिरसे कहना, पुनरुक्त है। (१२) वादीने तीन बार कहा, परिषदने भी समझ लिया, लेकिन प्रतिवादी उसका अनुवाद न कर पाया, इसे अननुभाषण कहते हैं। (१३) वादीके वक्तव्यको सभा समझ गई, किन्तु प्रतिवादो न समझा, यह अज्ञान है। (१४) उत्तर न सूझना, अप्रतिभा है। (१५) विपक्षी निग्रहस्थानमें पड़ गया हो, फिर भी यह न कहना कि तुम्हारा निग्रह हो गया है, पर्यनुयोज्योपेक्षण है। (१६) निग्रहस्यानमें न पड़ा हो, फिर भी उसका निग्रह बतलाना, निरनुयोज्यानुयोग है। (१७) स्व पक्षको कमजोर देखकर बात उड़ा देना, विक्षेप है। जैसे 'अभी मुझे यह काम करना है, फिर देखा जायगा' आदि । (१८) स्व पक्षमें दोष स्वीकार करके, पर पक्षमें भी वही दोष प्रतिपादन करना, मतानुज्ञा है । जैसे, 'यदि हमारे पक्षमें भी यह दोष है तो आपके पक्षमें भी है। (१९-२०) पांच अंगों ( प्रतिज्ञा आदि ) से कमका प्रयोग करना, न्यून है, और दो-दो तीन-तीन हेतु दृष्टांत आदि देना, अधिक है । (२१) स्वीकृत सिद्धांतके विरुद्ध कथन करना, अपसिद्धांत है । जैसे, 'सत्का उत्पाद नहीं, असत्का विनाश नहीं, यह मान करके भी आत्माका नाश प्रतिपादन करना।]" (२२) असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, कालात्ययापदिष्ट और प्रकरणसमके भेदसे हेत्वाभास पाँच प्रकारका है। यहाँ माया शब्दसे छल, जाति और निग्रहस्थानका सूचन किया गया है। ये छल, जाति और निग्रहस्थान केवल दूसरोंका वंचन करनेके लिये हैं, फिर भी इनका तत्त्व रूपसे उपदेश किया गया है। इस प्रकारके उपदेश देनेवाले अक्षपाद ऋषिको वीतराग कहना अंधकारको प्रकाश कहनेके समान होनेसे हास्यास्पद है । यह श्लोकका अर्थ है ॥ १०॥ भावार्थ-इस श्लोकमें योग नामसे कहे जानेवाले नैयायिकोंके प्रमाण, प्रमेय आदि पदार्थोका खण्डन १-५० दरबारीलाल न्यायतीर्थ-न्यायप्रदीप, पृ० ८९-९३
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy