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________________ ७५ अन्य. यो. व्य. श्लोक ९] स्याद्वादमञ्जरी भ्यमानगुणत्वेन सिद्धा कायप्रमाणता । यत्पुनरष्टसमयसाध्यकेवलिसमुद्घातदशायामार्हतानामपि चतुर्दशरज्ज्वात्मकलोकव्यापित्वेनात्मनः सर्वव्यापकत्वम्, तत् कादाचित्कम, इति न तेन व्यभिचारः। स्याद्वादमन्त्रकवचावगुण्ठितानां च नेशविभीषिकाभ्यो भयम् ।। इति काव्यार्थः॥९॥ जिसके गुण पाये जाते है' हेतुसे आत्मा शरीर-परिमाण ही सिद्ध होती है । तथा केवलीके समुद्घात दशामे आठ समयमें चौदह राजू परिमाण तीन लोकमे व्याप्त होनेकी अपेक्षा जो अत्माको व्यापक कहा है, वह कभीकभी होता है, नियमित रूपमे नहीं, इसलिये यहाँ पर ममुद्घात दशामें आत्माके व्यापक होनेसे व्यभिचार नहीं आता । ( मूल शरीरको न छोड़ कर आत्माके प्रदेशोके बाहर निकलनेको समुद्घात कहते हैं। यह समुद्घात वेदना, कषाय, मारणांतिक, तैजस, विक्रिया, आहारक और केवलीके भेदसे सात प्रकारका है। (१) तीव्र वेदना होनेके समय मूल शरीरको न छोड़ कर आत्माके प्रदेशोंके बाहर जानेको वेदनासमुद्घात कहते है। (२) तीव्र कषायके उदयसे दूसरेका नाश करनेके लिये मूल शरीरको विना छोड़े आत्माके प्रदेशोंके बाहर निकलनेको कपायसमुद्घात कहते है। (३) जिस स्थानमे आयुका वन्ध किया हो, मरनेके अन्तिम समय उस स्थानके प्रदेशोंको स्पर्श करनेके लिये मूल शरीरको न छोड़ कर आत्माके प्रदेशोंके बाहर निकलनेको मारणांतिकसमुद्घात कहते हैं। (४) तैजससमुद्रात शुभ और अशुभके भेदसे दो प्रकारका होता है । जीवोंको किसी व्याधि अथवा दुर्भिक्षसे पीड़ित देखकर मूल शरीरको न छोड़ मुनियोंके शरीरसे बारह योजन लम्बे, मूलभागमें सूच्यंगुलके असंख्येयभाग, अग्रभागमें नौ योजन, शुभ आकृति वाले पुतलेके बाहर निकल कर जानेको शुभतैजससमुद्घात कहते हैं । यह पुतला, व्याधि, दुर्भिक्ष आदिको नष्ट करके वापिस लौट आता है । किसी प्रकारके अपने अनिष्टको देखकर क्रोधके कारण मल शरीरके बिना छोड़े ही मुनियोंके शरीरसे उक्त परिमाणवाले अशुभ पुतलेके बाहर निकल कर जानेको अशुभ-तैजससमद्धात कहते है। यह अशुभ पुतला अपनी अनिष्ट वस्तुको नष्ट करके मुनिके साथ स्वयं भी भस्म हो जाता है। द्वीपायन मुनिने अशुभ-तैजससमुद्वात किया था। (५) मूल शरीरको न छोड़ कर किसी प्रकारकी विक्रिया करनेके लिये आत्माके प्रदेशोंके बाहर जानेको विक्रियासमुद्घात कहते हैं । ( ६ ) ऋद्धिधारी मुनियोंको किसी प्रकारको तत्त्वसम्बन्धी शंका होनेपर उनके मूल शरीरको बिना छोड़े शुद्ध स्फटिकके आकार,एक हाथके बराबर पुतलेका मस्तकके बीचसे निकलकर शंकाकी निवृत्तिके लिये केवली भगवान्के पास जाना, आहारकसमुद्घात है। यह पुतला अन्तर्मुहूर्तमें केवलीके पास पहुँच जाता है, और शंकाकी निवृत्ति होनेपर अपने स्थानको लौट आता है। (७) वेदनीय कर्मके अधिक रहनेपर और आयु कर्मके कम रह जानेपर आयु कर्मको विना भोगे ही आयु और वेदनीय कर्मके बरावर करनेके लिये आत्मप्रदेशोंका समस्त लोकमें व्याप्त हो जाना केवलीसमुद्घात है । वेदना, कषाय, मारणांतिक, तैजस, वैक्रियक और आहारक समुद्घातमें छह समय (लोकप्रकाश आदि श्वेताम्बर शास्त्रोंमें इनका समय अन्तमुहूर्त १. हंतेर्गमिक्रियात्वात्संभूयात्मप्रदेशानां च बहिरुद्गमनं समुद्धातः । स सप्तविधः । वेदनाकपायमारणांतिकतेजोविक्रियाऽहारककेवलिविषयभेदात् । वेदनीयस्य बहुत्वादल्पत्वाच्चायुपोज्नाभोगपूर्वकमायुःसमकरणार्थ द्रव्यस्वभावत्वात् सुराद्रव्यस्य फेनवेगबुबुदाविर्भावोपशमनवदेहस्थात्मप्रदेशानां बहिःसमुद्घातनं केवलिसमु द्घातः । केवलिसमुद्रातः अष्टसमयिकः । दंडकपाटप्रतरलोकपूरणानि चतुर्यु समयेपु, पुनः प्रतरकपाटदण्डस्वशरीरानुप्रवेशाश्चतुर्षु इति । राजवार्तिके पृ० ५३ २. उभियदलेक्कमुरवद्धयसंचयसण्णिहो हवे लोगो । अद्भुदयो मुरवसमो चोद्दसरज्जूदओ सव्वो।। छाया-उद्भूतदलैकमुरजध्वजसंचयसन्निभो भवेत् लोकः । अर्धोदयः मुरजसमः चतुर्दशरज्जूदयः सर्वः ॥ त्रिलोकसारे १-६
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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