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________________ ७४ श्रीमद्राजचन्द्रजेनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ९ अथात्मनः कायपरिमाणत्वे तत्खण्डने खण्डनप्रसङ्गः, इति चेत्, कः किमाह शरीरस्य खण्डने कथंचित तत्खण्डनस्येष्टत्वात् । शरीरसम्वद्धात्मप्रदेशेभ्यो हि कतिपयात्मप्रदेशानां खण्डितशरीर प्रदेशेऽवस्थानादात्मनः खण्डनम् । तञ्चात्र विद्यत एव । अन्यथा शरीरात् पृथगभूतावयवस्य कम्पोपलब्धिर्न स्यात् । न च खण्डितावयवानुप्रविष्टस्यात्मप्रदेशस्य पृथगात्मत्वप्रसङ्गः, तत्रैवानुप्रवेशात् । न चैकत्र सन्तानेऽनेके आत्मानः। अनेकार्थप्रतिभासिज्ञानानामेकप्रमात्राधारतया प्रतिभासाभावप्रसङ्गात्। शरीरान्तरव्यवस्थितानेकज्ञानावसेयार्थसंवित्तिवत् ।। कथं खण्डितावयवयोः संघट्टनं पश्चाद् इति चेत्, एकान्तेन छेदानभ्युपगमात् । पद्मनालतन्तुवत् छेदस्यापि स्वीकारात् । तथाभूतादृष्टवशात् तत्संघट्टनम विरुद्धमेवेति तनुपरिमाण एवात्माङ्गीकर्तव्यः, न व्यापकः। तथा च आत्मा व्यापको न भवति, चेतनत्वात्, यत्तु व्यापकं न तत् चेतनम, यथा व्योम, चेतनश्चात्मा, तस्माद् न व्यापकः। अव्यापकत्वे चास्य तत्रैवोपलशरोरके पहले परिमाणको छोड़े विना उत्तर परिमाणकी उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? समाधान-यह ठीक नहीं। क्योकि बालकका शरीर छोड़ कर युवा शरीर प्राप्त करते समय आत्माका सर्वथा विनाश नहीं होता। जैसे फण सहित अवस्थाको छोड़कर फण रहित अवस्थाको प्राप्त करते समय सर्पकी आत्माका सर्वथा विनाश नहीं होता, उसी तरह बाल शरीरसे युवा शरीरकी अवस्था प्राप्त करते समय आत्माका नाश नहीं होता । अतएव आत्माको शरीर-परिमाण माननेपर परलोक आदिका अभाव नहीं हो सकता। क्योंकि पर्यायकी अपेक्षासे अनित्य होने पर भी द्रव्यको अपेक्षासे आत्मा नित्य है। शंका-आत्माको शरीर-परिमाण माननेपर शरीरके नाश होनेसे आत्माका भी नाश हो जाना चाहिये। समाधान- आप यह क्या कहते हैं, शरीरके नाश होनेपर आत्माका कथंचित् नाश हमने स्वयं स्वीकार किया है । क्योंकि शरीरसे सम्बद्ध आत्मप्रदेशोंमें कुछ आत्मप्रदेशोंके खण्डित शरीरमें रहनेकी अपेक्षासे आत्माका नाश होता ही है । यदि इस अपेक्षासे आत्माका नाश न माना जाय, तो शरीरके तलवार आदिसे काटे जानेपर शरीरसे भिन्न अवयवोंमें कम्पन की उपलब्धि नहीं होनी चाहिये । परन्तु जिस समय पूर्ण शरीरसे कुछ अबयव कट कर अलग हो जाते हैं, उस समय उन अवयवोंमें कम्पन आदि क्रिया होती है ( जैन मान्यताके अनुसार, इन कटे हुए अवयवोंमें आत्माके कुछ प्रदेश रहते हैं, इसीलिये यह क्रिया हाती है ) अतएव आत्मा नाशमान भी है। शंका-शरीरके खण्डित अवयवोंमें आत्माके प्रदेशोंको स्वीकार करनेसे खण्डित अवयवोंमें भिन्न आत्मा मानना चाहिये । समाधान-यह बात नहीं है। क्योंकि खण्डित अवयवोंमें रहनेवाले आत्माके प्रदेश फिरसे पहले शरीरमें ही लौट आते हैं । तथा, एक स्थानमें अनेक आत्मा नहीं बन सकते, अन्यथा अनेक पदार्थोका निश्चय करानेवाली नेत्र आदि इन्द्रियोंसे उत्पन्न होनेवाले ज्ञानको एक ज्ञाता रूप आत्माके आधारसे पदार्थोंका निश्चय न हो सकेगा। इसलिये एक शरीरमें अनेक आत्मा माननेपर जिस रूपको शरीरके नेत्र रूप अवयवमें स्थित आत्मा देखता है, उसका निश्चय नेत्रस्थ आत्माको ही होना चाहिये, कानकी आत्माको नहीं। फिर, एक ज्ञाताके आधारसे प्रत्येक आत्मामें 'मैं देखता हूँ', 'मैं सूंघता हूँ' इस प्रकारका निश्चित ज्ञान नहीं हो सकता। शंका-आत्माके अवयव खण्डित हो जानेपर वे बादमें एक कैसे हो जाते हैं ? समाधान-हम लोग आत्माके प्रदेशोंका सर्वथा उच्छेद नहीं मानते। हमारे मतमें कमलकी डण्डीके तन्तुओंकी तरह आत्माका उच्छेद स्वीकार किया गया है। जिस प्रकार कमलकी नालके टुकड़े करनेपर टूटे हुए तन्तु फिरसे आकर मिल जाते हैं, वैसे ही शरीरके खण्डित होनेपर खण्डित आत्माके प्रदेश फिरसे पहले आत्माके प्रदेशोंसे आकर मिल जाते है । इन आत्माके प्रदेशोंका मिल जाना अदृष्टके बलसे सम्भव है, इसलिए आत्माको व्यापक न मानकर शरीर-परिमाण ही मानना चाहिये । तथा, चेतन होनेसे आत्मा व्यापक नहीं है। जो व्यापक है वह चेतन नहीं है, जैसे आकाश । आत्मा चेतन है, इसलिये वह व्यापक नहीं है.। ..आत्माके अव्यापक़ होनेपर,. 'जहां
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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