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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ९] स्याद्वादमञ्जरी अथात्मनः शरीरपरिमाणत्वे मूर्तत्वानुषङ्गात् शरीरेऽनुप्रवेशो न स्याद्, मूर्ते मूर्तस्यानुप्रवेशविरोधात् । ततो निरात्मकमेवाखिलं शरीरं प्राप्नोतीति चेत्, किमिदं मूर्तत्वं नाम । असर्वगतद्रव्यपरिमाणत्वं, रूपादिमत्त्वं वा ? तत्र नाद्यः पक्षो दोषाय, संमतत्वात् । द्वितीयस्त्वयुक्तः, व्याप्त्यभावात् । नहि यदसर्वगतं तद् नियमेन रूपादिमदित्यविनाभावोऽस्ति । मनसोऽसर्वगतत्वेऽपि भवन्मते तदसम्भवात् । आकाशकालदिगात्मनां सर्वगतत्व परममहत्त्व " सर्वसंयोगिसमानदेशँत्वं चेत्युक्तत्वाद् मनसो वैधर्म्यात्, सर्वगतत्वेन प्रतिषेधनात् । नात्मनः शरीरेऽनुप्रवेशानुपपत्तिः, येन निरात्मकं तत् स्यात् । असर्वगतद्रव्यपरिमाणलक्षणमूर्तत्वस्य मनोवत् प्रवेशाप्रतिबन्धकत्वात् । रूपादिमत्त्व लक्षणमूर्तत्वोपेतस्यापि जलादेर्वालुकादानुप्रवेशो न निषिध्यते आत्मनस्तु तद्रहितस्यापि तत्रासौ प्रतिषिध्यत इति महच्चित्रम् ॥ अथात्मनः कायपरिमाणत्वे बालशरीरपरिमाणस्य सतो युवशरीरपरिमाणस्वीकारः कथं स्यात्। किं तत्परिमाणत्यागात्, तदपरित्यागाद् वा ? परित्यागात् चेत्, तदा शरीरवत् तस्यानित्यत्वप्रसङ्गात् परलोकाद्यभावानुषङ्गः । अथापरित्यागात्, तन्न । पूर्वपरिमाणापरित्यागे शरीरवत् तस्योत्तरपरिमाणोत्पत्त्यनुपपत्तेः । तदयुक्तम् । युवशरीरपरिमाणावस्थायामात्मनो बालशरीरपरिमाणपरित्यागे सर्वथा विनाशासम्भवात्, बिफणावस्थोत्पादे सर्पवत् । इति कथं परलोकाभावोऽनुषज्यते । पर्यायतस्तस्यानित्यत्वेऽपि द्रव्यतो नित्यत्वात् ॥ 1 ७३. करता हूँ', यह स्मरण आत्माको एकान्त नित्य माननेपर नहीं बन सकता; क्योंकि अनुभवकी अवस्था स्मरणकी अवस्थासे भिन्न है । तथा अवस्थाके भिन्न होनेसे अवस्थावाले आत्मामें भी भेद मानना चाहिये । अतएव आत्माको एकान्त नित्य नहीं कहा जा सकता । उसे कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य मानना हो युक्तियुक्ति है । शंका–आत्माको शरीरके परिणाम माननेपर आत्माको मूर्त मानना चाहिये, अतएव आत्मा मूर्त शरीरमें प्रवेश न कर सकेगी, क्योंकि मूर्त मूर्तमें प्रवेश नहीं कर सकता । अतएव समस्त शरीर आत्मासे रहित हो जायेगा | समाधान - आप शरीर परिमाण को ( असर्वगत ) मूर्त कहते हैं, अथवा रूपादि धारण करनेको मूर्त कहते हैं ? प्रथम पक्ष हम स्वयं स्वीकार करते हैं । तथा रूपादि धारण करनेकी शरीरपरिमाणके साथ व्याप्ति नहीं है इसलिये दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं। क्योंकि जो असर्वगत है, अर्थात् शरीरके परिमाण है, वह रूपादिसे युक्त नहीं होता; क्योंकि मनके शरीर-परिमाण होनेपर भी वह आपके मत में रूपादिसे युक्त नहीं है । आप लोगोंने आकाश, काल, दिक् और आत्माको सर्वगत, परम महान् और सब मूर्त द्रव्यों के संयोगका धारक कह कर मनको अव्यापक सिद्ध किया है । अतएव आत्माका शरीर में प्रवेश करना असिद्ध नहीं है, जिससे शरीरको आत्मासे रहित कहा जा सके। क्योंकि असर्वगत मनकी तरह शरीर-परिमाण मूर्त आत्मा भी शरीर में प्रवेश कर सकता है । अतएव जैसे वैशेषिकोंके अनुसार मूर्त मन मूर्त शरीरमें प्रवेश कर सकता है, वैसे ही हमारे मतमें मूर्त आत्मा भी मूर्त शरीरमें प्रवेश कर सकती है। तथा रूपादिसे युक्त जल आदि मूर्त पदार्थ मूर्त बालुका आदिमें प्रवेश करते देखे ही जाते हैं, फिर रूपादिसे रहित आत्मा मूर्त शरीरमें न प्रवेश कर सके, यह एक महान् आश्चर्य ही होगा । शंका - आत्माको शरीरके परिमाण स्वीकार करनेमें बालकका शरीर युवाके शरीरमें कैसे तदल सकता है ? हम पूछते हैं कि बालकके शरीरके परिमाणको छोड़कर युवाका शरीर बनता है, अथवा पूर्व परिणामको बिना छोड़े ही उत्तर शरीरका परिमाण बन जाता है ? प्रथम पक्षमें, शरीरकी तरह आत्माको भी अनित्य होना चाहिये, तथा आत्माके अनित्य होनेपर परलोक आदि भी नहीं बन सकता । द्वितीय पक्षमें, १. सर्वमूर्तसंयोगित्वम् । २. इयत्तारहितत्वम् । ३. सर्वेषां मूर्तद्रव्याणां आकाशं समानो देश एक आधार इत्यर्थः । एवं दिगादिष्वपि व्याख्येयं । यद्यपि आकाशादिकं सर्वसंयोगिनामाधारो न भवति, इहप्रत्ययविषयत्वेनावस्थानात् । तथापि सर्वसंयोगिसंयोगाधारभूतत्वादुपचारेण सर्वसंयोगिनामप्याधार उच्यते ॥ १०
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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