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________________ ७२ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ९ नन्वात्मनां कार्यत्वे घटादिवत्प्राक्प्रसिद्धसमानजातीयावयवारभ्यत्वप्रसक्तिः। अवयवा ह्यवयविनमारभन्ते, यथा तन्तवः पटमिति चेत् । न वाच्यम् । न खलु घटादावपि कार्ये प्राक्प्रसिद्धसमानजातीयकपालसंयोगारभ्यत्वं दृष्टम् । कुम्भकारादिव्यापारान्विताद् मृत्पिण्डात् प्रथममेव पृथुवुघ्नोदराद्याकारस्यास्योत्पत्तिप्रतीतेः । द्रव्यस्य हि पूर्वाकारपरित्यागेनोत्तराकारपरिणामः कार्यत्वम् । तच्च बहिरिवान्तरप्यनुभूयत एव ततश्चात्मापि स्यात् कार्यः । न च पटादौ स्वावयवसंयोगपूर्वककार्यत्वोपलम्भात् सर्वत्र तथाभावो युक्तः। काष्ठे लोहलेख्यत्वोपलम्भाद् वज्रेऽपि तथाभावप्रसङ्गात् । प्रमाणबाधनमुभयत्रापि तुल्यम् । न चोक्तलक्षणकार्यत्वाभ्युपगमेऽप्यात्मनोऽनित्यत्वानुषङ्गात् प्रतिसन्धानाभावोऽनुषज्यते । कथञ्चिदनित्यत्वे सत्येवास्योपपद्यमानत्वात् । प्रतिसन्धानं हि यमहमद्राक्षं तमहं स्मरामीत्यादिरूपम । तच्चैकान्त नित्यत्वे कथमुपपद्यते । अवस्थाभेदात् । अन्या ह्यनुभवावस्था, अन्या च स्मरणावस्था। अवस्थाभेदे चावस्थावतोऽपि भेदादेकरूपत्वक्षतेः कथञ्चिदनित्यत्वं युक्त्यायातं केन वार्यताम् ॥ शरीरमें अनेक आत्मायें एक आत्माको उत्पन्न नहीं कर सकतीं। यदि अनेक जात्मायें एक आत्माको उत्पन्न करने लगें तो किसी पदार्थको स्मृति न हो सकेगी। क्योंकि एक आत्मासे देखे हुए पदार्थको दूसरा आत्मा स्मरण नहीं कर सकता । तथा, आत्मा रूप सजातीय कारणोंसे आत्माके उत्पन्न होनेपर घटकी तरह आत्माका अवयव-क्रियासे विभाग होगा, और इस प्रकार संयोगके नाश होनेसे आत्माका भी नाश हो जाना चाहिये। अर्थात् जैसे घट रूप कार्यका अवयव-क्रियासे विभाग होनेके कारण पूर्वसंयोगका नाश होता है, उसी तरह आत्मा रूप कायका भी अवयव-क्रियासे विभाग होनेपर संयोगका नाश हो जाना चाहिये । अतएव आत्माको शरीरके परिमाण माननेमें अनेक दोष आते हैं। समाधान-यह कथन ठीक नहीं। क्योंकि हम लोग सावयवत्व और कार्यत्वको कथंचित् रूपसे आत्मामें स्वीकार करते ही हैं। हम लोग आत्माको असंख्य प्रदेशी मानते हैं, इसलिये आत्माका सावयव है। द्रव्यालंकारके कर्ता कहते हैं-"आकाश भी प्रदेश सहित है, क्योंकि आकाशमें एक ही समयमें सम्पूर्ण मूर्त पदार्थ रहते हैं।" यद्यपि गन्धहस्ति आदि ग्रन्थोंमें अवयव और प्रदेशमें भेद बताया गया है, परन्तु यहाँ हम इस सूक्ष्म चर्चामें नहीं उतरते क्योंकि प्रदेशोंमें भी अवयवका व्यवहार होता है । आत्माके कार्यत्वका आगे प्ररूपण करेंगे। शंका-आत्माको कार्य माननेपर घटादिकी तरह आत्माकी उत्पत्ति भी सजातीय अवयवोंसे माननी चाहिये । क्योंकि अवयव ही अवयवीको उत्पन्न करते हैं; जैसे तन्तु पटको उत्पन्न करते हैं, वैसे ही आत्माकी भी अपने सजातीय अवयवोंसे उत्पत्ति माननी चाहिये। समाधान-यह ठीक नहीं। क्योंकि सजातीय दो कपालोंके संयोगसे घट आदि कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती, कारण कि कुम्हारके व्यापारसे युक्त मिट्टीके पिण्डसे दोनों कपालोंके उत्पन्न होनेके पहले ही मोटे, गोल और उदर आकारवाले घटका ज्ञान होता है। जिस समय कुम्हार मिट्टीके पिण्डसे घड़ा बनानेको बैठता है, उस समय मिट्टीके पिण्डसे दो कपालोंकी उत्पत्ति हुए विना ही मोटे, गोल आदि आकारवाले घटकी उत्पत्ति होती है । तथा, द्रव्यके पहले आकारको छोड़कर दूसरा आकार धारण करनेको कार्यत्व कहते हैं। यह कार्यत्व जैसे घट आदिमें बाह्य रूपमें देखा जाता है, वैसे ही आत्मामें अन्तरंग रूपमें देखा जाता है, अतएव आत्मा भी कथंचित् कार्य है। यदि कहो कि जैसे पटमें तन्तु रूप अवयवोंके संयोगसे पट आदि कार्य होते हैं, वैसे ही सव पदार्थोंमें अवयवोंके संयोगसे ही कार्य होते हैं, तो यह ठीक नहीं । क्योंकि सब जगह एकसे नियम नहीं होते। उदाहरणके लिये, लकड़ी लोहेसे खोदी जाती है, परन्तु वज्र लोहेसे नहीं खोदा जा सकता। यदि कहो कि वज्र का लोहेसे खोदा जाना प्रत्यक्षसे बाधित है, तो इसी तरह कपालके संयोगसे घटका उत्पन्न होना भी प्रत्यक्षसे बाधित है। तथा, पूर्व आकार छोड़ कर उत्तर आकारको ग्रहण करने रूप कार्यत्वके माननेपर आत्माके अनित्य होनेसे स्मरणका अभाव नहीं हो सकता। क्योंकि आत्माके कथंचित अनित्य माननेपर भी स्मरणकी सिद्धि होती है। 'जो मैंने देखा, उसे स्मरण
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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