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अन्य. यो. व्य. श्लोक ९] स्याद्वादमञ्जरी
अथास्तु यथाकथञ्चिच्छरीरोत्पत्तिः, तथापि सावयवं शरीरं प्रत्यवयवमनुप्रविशन्नात्मा सावयवः स्यात् । तथा चास्य पटादिवत् कार्यत्वप्रसङ्गः। कार्यत्वे चासौ विजातीयैः सजातीयैर्वा कारणैरारभ्येत । न तावद्विजातीयैः तेषामनारम्भकत्वात् । न हि तन्तवो घटमारभन्ते । न च सजातीयैः। यत आत्मत्वाभिसम्बन्धादेव तेषां कारणानां सजातीयत्वम् । पार्थिवादिपरमाणूनां विजातीयत्वात् । तथा चात्मभिरात्मा आरभ्यत इत्यायातम् । तच्चायुक्तम् । एकत्र शरीरेऽनेकात्मनामात्मारम्भकाणामसम्भवात्। सम्भवे वा प्रतिसन्धानानुपपत्तिः। न हि अन्येन दृष्टमन्यः प्रतिसन्धातुमर्ह ति, अतिप्रसङ्गात् । तदारभ्यत्वे चास्य घटवदवयव क्रियातो विभागात् संयोगविनाशाद् विनाशः स्यात् । तस्माद् व्यापक एवात्मा युज्यते । कायप्रमाणतायामुक्तदोषसद्भावादिति चेत् । न । सावयवत्वकार्यत्वयोः कथञ्चिदात्मन्यभ्युपगमात् । तत्र सावयवत्वं तावद् असंख्येयप्रदेशात्मकत्वात् । तथा च द्रव्यालङ्कारकारः-"आकाशोऽपि सदेशः, सकृत्सर्वमूर्ताभिसम्बन्धार्हत्वात्" इति। यद्यप्यवयवप्रदेशयोर्गन्धहस्त्यादिषु भेदोऽस्ति तथापि नात्र सूक्ष्मेक्षिका चिन्त्या । प्रदेशेष्ववयवव्यवहारात् । कार्यत्वं तु वक्ष्यामः॥ ( विभाग ) दूसरे प्रदेशसे संयुक्त ( संयोग ) होते हैं। इस तरह आकाशके प्रदेशमें परमाणुओंके इकट्ठे होनेसे यणक, त्र्यणक आदि कार्य होते हैं। यदि आत्माको सर्वव्यापक न मानें, तो उसका परमाणुओंके साथ सम्बन्ध न हो सकेगा, इसलिए वह परमाणुओंमें कोई क्रिया नहीं कर सकती, अतः क्रियाका अभाव होगा। क्रियाका अभाव होनेसे परमाणुका आकाशके प्रदेशोंसे विभाग और संयोग नहीं बन सकता, इसलिये जिन द्वयणुक, त्र्यणुक आदि अवयवोंका संयोग होनेसे शरीर बनता है, उस अन्त्य-संयोगका भी अभाव होगा। अतएव अन्त्य-संयोगसे होनेवाले शरीरका भी अभाव हो जाना चाहिये । तथा शरीरका अभाव ही मोक्ष है, अतएव आत्माको सर्वव्यापक न माननेसे सब जीवोंको अनायास ही मोक्षकी प्राप्ति हो जायेगी।) समाधानयह ठीक नहीं। क्योंकि यह नियम नहीं कि जो जिसके साथ संयुक्त हो, वह उसके प्रति आकर्षित होता ही हो। चुम्बक और लोहके परस्पर संयुक्त न होनेपर भी उनमें आकर्षण देखा जाता है। इसलिए जैसे लोहे और चुम्बकका संयोग नहीं है, फिर भी उनमें आकर्षण होता है, वैसे ही आत्मा और परमाणुओंका संयोग न होनेपर भी आत्मा परमाणुओंको आकर्षित कर सकता है, उसे सर्वव्यापक माननेकी आवश्यकता नहीं । शंका-यदि विना संयोगके भी आत्माका परमाणुओंके प्रति आकर्षण हो, तो आत्माको बनानेवाले प्रत्येक मुखीभूत त्रिभुवनके उदरवर्ती परमाणुओंके प्रति आत्माका आकर्षण होनेसे न जाने आत्माको कितने महत् परिमाणवाला मानना होगा । समाधान-वैशेषिक लोगोंके मतमें आत्माके साथ संयुक्त पदार्थोंका आकर्षण माननेपर भी उक्त दोप वैसा ही रहता है। क्योंकि आत्माके व्यापक होनेसे उसका सम्पूर्ण परमाणुओंके साथ सम्बन्ध रहता ही है। शंका-अदृष्टके वलसे शरीरके उत्पन्न करनेके अनुकूल नियत परमाणु ही आत्माके प्रति आकर्षित होते हैं। समाधान-लेकिन यही बात असंयुक्त परमाणुओंके साथ आत्माका सम्बन्ध मानने में भी कही जा सकती है।
शंका-शरीरकी उत्पत्ति चाहे संयुक्त परमाणुओंसे हो, अथवा असंयुक्त परमाणुओंसे, परन्तु शरीर अवयव सहित है। अतएव शरीरके प्रत्येक अवयवमें प्रवेश करनेसे आत्माको भी सावयव मानना चाहिये । जैसे पट आदि सावयव होनेसे कार्य हैं, वैसे ही आत्माको भी सावयव होनेसे कार्य मानना चाहिये। तथा, यदि मात्मा कार्य है, तो वह सजातीय कारणोंसे बनती है, अथवा विजातीय कारणोंसे ? आत्मा विजातीय कारणोंसे नहीं बन सकती, क्योंकि विजातीय कारणोंसे कोई भी कार्य नहीं होता है; उदाहरणके लिये, तन्तुओंसे घड़ा नहीं बन सकता । आत्मा सजातीय कारणोंसे भी उत्पन्न नहीं हो सकती। क्योंकि पार्थिव आदि परमाणु विजातीय हैं, इसलिये सजातीय कारण आत्माके सम्बन्धसे ही सजातीय कहे जा सकते हैं । अर्थात् जिन कारणोंसे आत्माका सम्बन्ध हो, वे ही कारण आत्माके सजातीय हो सकते हैं । अतएव यह अर्थ निकला कि आत्माओंसे आत्मा उत्पन्न किया जाता है। परन्तु जैन लोगोंको यह मान्य नहीं है। क्योंकि एक ही