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________________ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ९ आत्मनां च सर्वगतत्वे एकैकस्य सृष्टिकर्तृत्वप्रसङ्गः । सर्वगतत्वेनेश्वरान्तरानुप्रवेशस्य सम्भावनीयत्वात् । ईश्वरस्य वा तदन्तरानुप्रवेशे तस्याप्यकर्तृत्वापत्तिः। न हि भीरनीरयोरन्योन्यसम्बन्थे, एकतरत्य पानादिक्रियान्यतरस्य न भवतीति युक्तं वक्तुम् । किञ्च, आत्मनः सर्वगतत्वे नरनारकादिपर्यायाणां युगपदनुभवानुपङ्गः। अथ भोगायतनाभ्युपगमाद् नायं दोप इति चेत्, ननु स भोगायतनं सर्वात्मना अवष्टभ्नीयाद्, एकदेशेन वा ? सर्वात्मना चेद्, अस्मदभिमताङ्गीकारः । एकदेशेन चेत् , सावयवत्वप्रसङ्गः। परिपूर्णभोगाभावश्च ।। अथात्मनो व्यापकत्वाभावे दिग्देशान्तरवर्तिपरमाणुभिर्युगपत्संयोगाभावाद् आद्यकर्माभावः, तदभावाद् अन्त्यसंयोगस्य, तन्निर्मितशरीरस्य, तेन तत्सम्बन्धस्य चाभावाद् अनुपायसिद्धः सर्वदा सर्वेपां मोक्षः स्यात् । नैवम् । यद् येन संयुक्तं तदेव तं प्रत्युपसर्पतीति नियमासम्भवात् । अयस्कान्तं प्रति अयसस्तेनासंयुक्तस्याप्याकर्पणोपलब्धेः । अथासंयुक्तस्याप्याकर्पणे तच्छरीरारम्भं प्रत्येकमुखीभूतानां त्रिभुवनोदरविवरवर्तिपरमाणूनामुपसर्पणप्रसङ्गाद् न जाने तच्छरीरं कियत्प्रमाणं स्याद् इति चेत्, संयुक्तस्याप्याकर्पणे कथं स एव दोपो न भवेत् । आत्मनो व्यापकत्वेन सकलपरमाणूनां तेन संयोगात् । अथ तद्भावाविशेषेऽप्यदृष्टवशाद् विवक्षितशरीरोत्पादनानुगुणा नियता एव परमाणव उपसन्ति । तदितरत्रापि तुल्यम् ।। शुभ कर्मसे दूसरा सुखी, और दूसरेके अशुभ कर्मसे दूसरा मनुष्य दुःखी हुआ करेगा। तथा, एक ही आत्माके स्वयं उपार्जित शुभ कर्मोसे सुखी, और दूसरेसे उपार्जित अशुभ कर्मोसे दुःखी होनेके कारण एक ही समयम एक साथ सुख-दुःखका संवेदन होना चाहिये। यदि कहो कि आत्मा अपने शरीरके आश्रित रहकर ही अपने शुभअशुभ कर्मका फल भोगता है, तो स्वयं उपार्जन किया हुआ अदृष्ट शरीरसे वाहर निकल कर अग्निके ऊँचे ले जाने आदि कार्यको कैसे कर सकता है ? यह विचारणीय है। ( इसलिए आत्माको अपने शरीरके आश्रित रहकर ही सुख-दुःखका भोक्ता माननेसे आत्माका अदृष्ट, शरीरके वाहर निकलकर अग्निको ऊँचे जलाने आदि कार्यको नहीं कर सकता। क्योंकि सुख-दुःखकी तरह अदृष्ट भी आत्माका ही गुण है।) तथा, आत्माको सर्वव्यापक माननेपर प्रत्येक आत्माको सृष्टिका का मानना चाहिये । फिर, ईश्वरके सर्वव्यापक होनेसे नाना आत्माओंमें भी ईश्वर व्यापक होकर रहेगा। अथवा, नाना आत्मायें सर्वव्यापक हैं, इसलिये वे ईश्वरमें भी व्यापक होकर रहेंगी, इसलिए ईश्वरके कर्तृत्वका अभाव हो जानेका प्रसंग खड़ा हो जायेगा। जैसे दूध और पानीके मिल जानेपर उनमेंसे एकका पान किया जा सकता है, दूसरेका पान नहीं किया जा सकता-ऐसा कहना युक्त नहीं है, उसी प्रकार ईश्वर आत्मा दोनोंको सर्वव्यापक माननेसे, दोनोंका परस्पर सम्मिश्रण होनेके कारण, या तो आत्मा स्वयं सृष्टिका कर्ता होना चाहिए, अथवा ईश्वर भी सृष्टिका कर्ता नहीं हो सकता । तथा, आत्माको सर्वव्यापक माननेपर मनुष्य, नरक आदि पर्यायोंका एक ही साथ अनुभव होना चाहिए। यदि कहो कि आत्मा शरीरमें रह कर ही उपभोग करता है, इसलिये उक्त दोप ठीक नहीं है, तो प्रश्न होता है कि आत्मा सम्पूर्ण रूपसे शरीरमें व्याप्त है, अथवा एक देशसे ? प्रथम पक्ष स्वीकार करनेसे हमारे ही मतकी स्वीकृति होगी, क्योंकि हम भी आत्माको शरीरके परिमाण ही मानते हैं । यदि द्वितीय पक्ष स्वीकार करो तो सम्पूर्ण शरीरमें न रहनेसे आत्माको अवयव सहित मानना चाहिये, और आत्माके सावयव होनेसे वह पूर्ण रूपसे शरीरका भोग भी न कर सकेगी। शंका-आत्मा यदि व्यापक न हो, तो अन्य स्थानोंमें रहनेवाले परमाणुओंके साथ एक समयमें उसका संयोग न हो सकेगा, अतएव आद्य-कर्मका अभाव होगा। आद्यकर्मके अभावसे अन्त्य-संयोगका भी अभाव होगा, अन्त्य-संयोगके अभावसे अंत्य-संयोगके निमित्त से उत्पन्न होनेवाले शरीरका अभाव होगा, तथा शरीरका अभाव होनेने शरीरका आत्माके साथ सम्बन्ध नहीं बन सकता, अतएव सब जीवोंको विना प्रयत्लके मोक्ष प्राप्त हो जायेगा । (भाव यह है कि वैशेपिक लोग अदृष्टसे युक्त आत्माके संयोगसे परमाणुओंमें क्रिया मानते हैं । परमाणुओंमें क्रिया होनेसे परमाणु आकाशके एक प्रदेशको छोड़ कर
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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