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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ९] स्याद्वादमञ्जरी __ अथास्त्यदृष्टमात्मनो विशेषगुणः। तच्च सर्वोत्पत्तिमतां निमित्तं सर्वव्यापकं च । कथमितरथा द्वीपान्तरादिष्वपि प्रतिनियतदेशवर्तिपुरुषोपभोग्यानि कनकरत्नचन्दनाङ्गनादीनि तेनोत्पाद्यन्ते । गुणश्च गुणिनं विहाय न वर्तते । अतोऽनुमीयते सर्वगत आत्मेति । नैवम् । अदृष्टस्य सर्वगतत्वसाधने प्रमाणाभावात् । अथास्त्येव प्रमाणं वह्नेरूद्धज्वलनं, वायोस्तिर्यकपवनं चादृष्टकारितमिति चेत् । न । तयोस्तत्स्वभावत्वादेव तत्सिद्धेः, दहनस्य दहनशक्तिवत् । साप्यदृष्टकारिता चेत् , तर्हि जगत्त्रयवैचित्रीसूत्रणेऽपि तदेव सूत्रधारायतां, किमीश्वरकल्पनया। तन्नायमसिद्धो हेतुः । न चानैकान्तिकः। साध्यसाधनयोाप्तिग्रहणेन व्यभिचाराभावात् । पि विरुद्धः। अत्यन्तं विपक्षव्यावृत्तत्वात् । आत्मगुणाश्च बुद्धयादयः शरीर एवोपलभ्यन्ते, ततो गुणिनापि तत्रैव भाव्यम् । इति सिद्धः कायप्रमाण आत्मा ।। अन्यञ्च, त्वयात्मनां बहुत्वमिष्यते "नानात्मानो व्यवस्थातः" इति वचनात् । ते च ध्यापकाः। ततस्तेषां प्रदीपप्रभामण्डलानामिव परस्परानुवेधे तदाश्रितशुभाशुभकर्मणामपि परस्परं सङ्करः स्यात् । तथा चैकस्य शुभकर्मणा अन्यः सुखी भवेद्, इतरस्याशुभकर्मणा चान्यो दुःखीत्यसमञ्जसमापद्यत । अन्यच्च, एकस्यैवात्मनः स्वोपात्तशुभकर्मविपाकेन सुखित्वं, परोपा. र्जिताशुभकर्मविपाकसम्बन्धेन च दुःखित्वमिति युगपत्सुखदुःखसंवेदनप्रसङ्गः। अथ स्वावष्टब्धं भोगायतनमाश्रित्यैव शुभाशुभयोर्भोगः, तर्हि स्वोपार्जितमप्यदृष्टं कथं भोगायतनाद् बहिनिष्क्रम्य वढेरू ज्वलनादिकं करोति इति चिन्त्यमेतत् ॥ ___शंका-आत्माका अदृष्ट नामका एक विशेष गुण है। यह अदृष्ट उत्पन्न होनेवाले सब पदार्थोंमें निमित्त कारण है, और यह सर्वव्यापक है; अन्यथा इससे दूसरे द्वीपोंमें भी निश्चित स्थानमें रहनेवाले पुरुषोंके भोगने योग्य, सुवर्ण, रत्न, चन्दन तथा स्त्री आदि कैसे प्राप्त हो सकते हैं ? यदि आत्मा सर्वव्यापक नहीं होता, तो आत्माका अदृष्ट गुण अन्यत्र प्रवृत्ति नहीं कर सकता था। गुण गुणीको छोड़कर नहीं रहते, अतएव आत्मा सर्वव्यापक ही है। इस प्रकार आत्माके अदृष्ट गृणको सर्वत्र देखनेसे आत्माकी सर्वव्यापकता सिद्ध होती है। समाधान-यह ठीक नहीं। क्योंकि अदृष्टके सर्वव्यापी होनेमें कोई प्रमाण नहीं है। यदि कहो कि अग्निकी शिखाका ऊँचा जाना, हवाका तिरछे बहना, यह सब अदृष्टसे ही होता है, अतएव अदृष्टका साधक प्रमाण अवश्य है, तो यह ठीक नहीं। क्योंकि अग्निका ऊँचे जाना और वायुका तिरछे बहना अदृष्टके बलसे ही सिद्ध नहीं होता। कारण कि जैसे अग्निमें दहनशक्ति स्वभावसे ही है, उसी तरह अग्निका ऊँचा जाना भी स्वभावसे ही मानना चाहिये, अदृष्टके बलसे नहीं। यदि कहो कि अग्निमें दहनशक्ति भी अदृष्टके बलसे ही है, तो फिर तीनों लोकोंकी सृष्टिमें भी अदृष्टको कारण मानना चाहिए, फिर ईश्वरकी कल्पना करनेसे कोई लाभ नहीं। अतएव 'आत्मा सर्वगत नहीं है, क्योंकि आत्माके गुण सब जगह नहीं पाये जाते,' यह हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि आत्माके गुण सब जगह नहीं उपलब्ध होते । तथा, यह हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है, क्योंकि यहाँ 'असर्वगत' साध्यकी, 'आत्माके गुण सब जगह नहीं पाये जाते' साधनके साथ व्याप्ति ठीक बैठती है। यह हेतु विरुद्ध भी नहीं है, क्योंकि 'आत्माके गुण सब जगह नहीं पाये जाते' हेतु, 'सर्वगतत्व' विपक्षसे अत्यंत व्यावृत्त है। तथा, आत्माके गुण बुद्धि आदि शरीरमें ही उपलब्ध होते हैं, अतएव गुणी (आत्मा) को भी उसी स्थानमें रहना चाहिये । इससे सिद्ध होता है कि आत्मा शरीरके प्रमाण है। तथा, वैशेषिकोंने आत्माका बहुत्व स्वीकार किया है। कहा भी है-"प्रत्येक शरीरमें भिन्न-भिन्न आत्मा होनेसे आत्मा नाना है।" अतएव यदि ये नाना आत्मा व्यापक है, तो दीपकोंको प्रभाओंके परस्पर सम्मिश्रणकी तरह आत्माके शुभ-अशुभ कर्मोंका भी परस्पर सम्मिश्रण हो जाना चाहिये। इसलिए आत्माको नाना और व्यापक माननेसे आत्माके भिन्न-भिन्न शुभ-अशुभ कर्मोंके एक दूसरेसे सम्मिलित हो जानेपर एकके १. नानाभेदभिन्नानां सुखदुःखादीनां प्रत्यात्मप्रतिसंधानं व्यवस्था ।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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