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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ९ गमनोपपत्तेरिति । अत एवाह । निष्प्रतिपक्षमेतदिति । एतद् निष्प्रतिपक्षं-बाधकरहितम् । "न हि दृष्टेऽनुपपन्नं' नाम" इति न्यायात् ।
ननु मन्त्रादीनां भिन्नदेशस्थानामप्याकर्पणोच्चाटनादिको गुणो योजनशतादेः परतोऽपि दृश्यत इत्यस्ति वाधकमिति चेत् । मैवं वोचः। स हि न खलु मन्त्रादीनां गुणः, किन्तु तदधिष्ठातृदेवतानाम् । तासां चाकर्पणीयोच्चाटनीयादिदेशगमने कौतस्कुतोऽयमुपालम्भः। न जातु गुणा गुणिनमतिरिच्य वर्तन्त इति । अथोत्तरार्द्ध व्याख्यायते । तथापीत्यादि । तथापिएवं निःसपत्नं व्यवस्थितेऽपि तत्त्वे । अतत्त्ववादोपहताः। अनाचार इत्यत्रेव नबः कुत्सार्थत्वात् । कुत्सिततत्त्ववादेन तदभिमताप्ताभासपुरुषविशेषप्रणीतेन तत्त्वाभासप्ररूपणेनोपहताःव्यामोहिताः। देहाद् वहिःशरीरव्यतिरिक्तेऽपि देशे, आत्मतत्त्वम्-आत्मरूपम् ; पठन्ति शास्त्ररूपतया प्रणयन्ते । इत्यक्षरार्थः ।।
भावार्थस्त्वयम् । आत्मा सर्वगतो न भवति, सर्वत्र तद्गुणानुपलब्धेः। यो यः सर्वत्रानुपलभ्यमानगुणः स स सर्वगतो न भवति, यथा घटः; तथा चायम् ; तस्मात् तथा । व्यतिरेके व्योमादि । न चायमसिद्धो हेतुः, कायव्यतिरिक्तदेशे तद्गुणानां बुद्धयादीनां वादिना प्रतिवादिना वानभ्युपगमात् । तथा च भट्टः श्रीधरः-"सर्वगतत्वेऽप्यात्मनो देहप्रदेशे ज्ञातृत्वम् । नान्यत्र । शरीरस्योपभोगायतनत्वात् । अन्यथा तस्य चैयादिति ॥
जाते हैं, देहके बाहर नहीं, अतएव आत्मा शरीरके ही परिमाण है। यद्यपि पुष्प आदिके एक स्थानमें रहते हुए भी उसके दूसरे स्थानमें गन्ध आदि गुण उपलब्ध होते हैं, परन्तु इससे हेतुमें व्यभिचार नहीं आता। क्योंकि पुष्प आदिमें रहनेवाले गन्ध आदि पुद्गल ही अपने स्वभाव अथवा वायुके प्रयोगसे गमन करते हैं, इसलिये पुष्प आदिमें रहनेवाले गन्ध-पुद्गल नासिका इन्द्रिय तक जाते हैं। अतएव उक्त कथन वाधा रहित है, क्योंकि "प्रत्यक्षसे देखे हुए पदार्थमें असिद्धको सम्भावना नहीं होती।" ।
शंका-मन्त्र आदिके भिन्न देशमें रहते हुए भी सैकड़ों योजनकी दूरीपर उनके आकर्षण, उच्चाटन आदि गुण देखे जाते हैं, अतएव उक्त कथन वाधायुक्त है । समाधान-यह ठीक नहीं। क्योंकि आकर्षण, उच्चाटन आदि गुण मन्त्रके नहीं है, किन्तु ये गुण मन्त्र आदिके अधिष्ठाता देवताओंके हैं। मन्त्रके अधिष्ठाता देव ही आकर्षण उच्चाटन आदिसे प्रभावित स्थानमें स्वयं जाते हैं, इसलिये उक्त दोप ठीक नहीं है। क्योंकि कभी भी गुण गुणीको छोड़कर नहीं रहते। इस प्रकार हमारे सिद्धान्तके निर्विवाद सिद्ध होनेपर भी कुत्सित तत्त्ववाद (जैसे अनाचार शब्दमें कुत्सित अर्थमें नन समास किया गया है, उसी तरह 'अतत्त्ववाद' में भी नन समास कुत्सित अर्थमें है। ) से व्यामोहित वैशेषिक लोग आत्माको शरीरके बाहर भी स्वीकार करते हैं।
भाव यह है कि आत्मा सर्वव्यापक नहीं है, क्योंकि सब जगह आत्माके गुण उपलब्ध नहीं होते । जिस वस्तुके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते, वह सर्वव्यापक नहीं होती। जैसे घड़ेके रूप आदि गुण सर्वत्र नहीं दिखाई देते, इसलिये घड़ा सर्वव्यापक नहीं है। इसी तरह आत्माके गुण भी सर्वत्र उपलब्ध नहीं हैं, इसलिये
आत्मा भी सर्वव्यापक नहीं है। व्यतिरेक दृष्टान्तमें-जो सर्वव्यापी होता है, उसके गुण सब जगह उपलब्ध होते हैं, जैसे आकाश । उक्त हेतु असिद्ध नहीं है, क्योंकि वादी अथवा प्रतिवादीने बुद्धि आदि आत्माके गुणोंको शरीरको छोड़कर अन्यत्र स्वीकार नहीं किया है। श्रीधर भट्टने कहा भी है "आत्माके सर्वव्यापक होनेपर भी शरीरमें रहकर ही आत्मा पदार्थोको जानता है, दूसरी जगह नहीं। क्योंकि शरीर ही उपभोगका स्थान है, यदि शरीरको उपभोगका स्थान न माना जाय तो शरीर व्यर्थ हो जाये।" ( इस प्रकार भट्टके कथनके अनुसार आत्माके बुद्धि आदि गुण शरीरसे बाहर नहीं रहते।)
१. दृष्टे वस्तुनि उपपत्तेरनपेक्षेत्यर्थः । २. निर्विवादमित्यर्थः । ३. न्यायकन्दल्यां ।