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अन्य. यो. व्य. श्लोक ९] स्याद्वादमञ्जरी
अथ ते वादिनः कायप्रमाणत्वमात्मनः स्वयं संवेद्यमानमपलप्य, तादृशकुशास्त्रशस्त्रसंपर्कविनष्टदृष्टयस्तस्य विभुत्वं मन्यन्ते । अतस्त्रोपालम्भमाह
यत्रैव यो दृष्टगुणः स तत्र कुम्भादिवद् निष्प्रतिपक्षमेतत् ।
तथापि देहाद् वहिरात्मतत्त्वमतत्त्ववादोपहताः पठन्ति ॥९॥ यत्रव-देशे, यः पदार्थः; दृष्टगुणो, दृष्टाः-प्रत्यक्षादिप्रमाणतोऽनुभूताः, गुणा धर्मा यस्य स तथा; स पदार्थः, तत्रैव-विवक्षितदेश एव । उपपद्यते इति क्रियाध्याहारो गम्यः। पूर्वस्यैवकारस्यावधारणार्थस्यात्राप्यभिसम्बन्धात तत्रैव नान्यत्रेत्यन्ययोगव्यवच्छेदः । अमुमेवार्थं दृष्टान्तेन द्रढयति । कुम्भादिवदिति-घटादिवत् । यथा कुम्भादेर्यत्रैव देशे रूपादयो गुणा उपलभ्यन्ते, तत्रैव तस्यास्तित्वं प्रतीयते नान्यत्र । एवमात्मनोऽपि गुणाश्चैतन्यादयो देह एव दृश्यन्ते न वहिः, तस्मात् तत्प्रमाण एवायमिति । यद्यपि पुष्पादीनामवस्थानदेशादन्यत्रापि गन्धादिगुण उपलभ्यते, तथापि तेन न व्यभिचारः। तदाश्रया हि गन्धादिपुद्गलाः तेषां च वैश्रसिक्या प्रायोगिक्या वा गत्या गतिमत्त्वेन तदुपलम्भकवाणादिदेशं यावदाएक हों, तो दुःख, जन्म आदि नाश होनेपर जिस समय मुक्तावस्थामें बुद्धि, सुख आदिका नाश हो जाता है, उस समय आत्माका भी नाश हो जाना चाहिये ।
जैन-(२) यदि आत्मा और ज्ञानको सर्वथा भिन्न माना जाय, तो हमें अपने ही ज्ञानसे अपनी ही आत्माका भी ज्ञान न हो सकेगा। तथा वैशेषिकोंके मतमें आत्मा व्यापक है, इसलिये एक आत्मामें ज्ञान होनेसे सब आत्माओंको पदार्थोंका ज्ञान होना चाहिये। तथा आत्मा और ज्ञानका समवाय संबन्ध भी नहीं बन सकता। आत्मा और ज्ञानमें कर्ता और करण संबन्ध मानकर भी दोनोंको भिन्न मानना युक्त नहीं है। क्योंकि करण हमेशा कर्तासे भिन्न नहीं होता। जैसे 'सर्प अपनेको अपने आपसे वेष्टित करता है'-यहाँ कर्ता और करण भिन्न नहीं हैं, इसी तरह आत्मा और ज्ञान अलग-अलग नहीं हो सकते । तथा, चैतन्यको वैशेषिकोंने भी आत्माका स्वरूप माना है। इसलिये जैसे वृक्षका स्वरूप वृक्षसे भिन्न नहीं हो सकता, वैसे ही चैतन्य आत्मासे भिन्न नहीं हो सकता। तथा, ज्ञान और आत्माको भिन्न माननेपर 'मैं ज्ञाता हूँ' ऐसा ज्ञान नहीं हो सकेगा । अतएव आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं।
वैशेषिक-(३) मोक्ष ज्ञान और आनन्द रूप नहीं है, क्योंकि दीपककी सन्तानकी तरह मोक्षमें बुद्धि, सुख, दुःख आदि गुणोंकी सन्तानका सर्वथा नाश हो जाता है। तथा, मुक्तावस्था में जीव अपने ही स्वरूपमें स्थित रहता है।
जैन-(३ ) यहाँ संतानत्व हेतु अनैकान्तिक हेत्वाभाससे दूषित है। ज्ञान और सुखके अनुभवसे सर्वथा शून्य वैशेषिकोंकी ऐसी मुक्तिके प्राप्त करनेके लिये कोई भी प्रयत्नवान न होगा। तथा, सांसारिक सुख ही रागका कारण है, मोक्षका अक्षय और अनंत सुख रागका कारण नहीं। अतएव मोक्षमें ज्ञान और सुखका आत्यन्तिक अभाव है, यह कहना ठीक नहीं है।
अब आत्माको शरीरके प्रमाण न मानकर उसे सर्वव्यापक माननेवाले उस प्रकारके कुशास्त्ररूपी शास्त्रके संपर्कसे विनष्ट दृष्टि हुए वैशेषिकोंकी मान्यताका खंडन करते हैं
श्लोकार्थ-यह निर्विवाद है कि जिस पदार्थके गुण जिस स्थानमें देखे जाते हैं, वह पदार्थ उसी स्थानमें रहता है; जैसे जहाँ घटके रूप आदि गुण रहते हैं, वहीं घट भी रहता है। तथापि कुवादी लोग देहके बाह्य आत्माको कुत्सित तत्त्ववादसे व्यामोहित होकर ( सर्वव्यापक रूपसे ) स्वीकार करते हैं।
व्याख्यार्थ-'यत्रैव यः दृष्टगुणो तत्रैव'-जिस स्थानमें घट आदिके रूप आदि गुण पाये जाते हैं, उसी स्थानपर घटकी उपलब्धि होती है, अन्यत्र नहीं। इसी प्रकार आत्माके चैतन्य आदि गुण देहमें ही देखे