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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ८ परपर्याययोरुच्छेदोऽस्त्येव । तदभावे मोक्षस्यैवायोगात् । संस्कारश्च मतिज्ञानविशेष एव । तस्य च मोहक्षयानन्तरं क्षीणत्वादभाव इति । तदेवं न संविदानन्दमयी च मुक्तिरिति युक्तिरिक्तयमुक्तिः । इति काव्यार्थः॥८॥
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होता है। यद्यपि द्रव्य आदि छहों पदार्थोमें 'अस्तित्व' रहता है, तथापि वह सामान्य आदि तीनमें अनुवृत्तिप्रत्यय ( सामान्यज्ञान ) का कारण नहीं है, और द्रव्यादि तीन पदार्थोंमें है, इसलिये द्रव्यादि तीन पदार्थोंमें ही सत्ता रहती है। यदि सामान्य, विशेष और समवायमें सत्तासम्बन्ध स्वीकार किया जाय, तो क्रमसे अनवस्था, रूपहानि और असम्बन्ध दोष आते हैं, अतएव सत्ताको सामान्य आदि तीन में स्वीकार न करके द्रव्य, गुण और कर्ममें ही स्वीकार करना चाहिये।
ख-सत्ता द्रव्य, गुण और कर्मसे भिन्न है ( सत्ता द्रव्यगुणकर्मभ्योऽर्थान्तरं ) । ( अ ) सत्ता द्रव्यसे भिन्न है । जो द्रव्योंसे उत्पन्न न हुआ हो, अथवा द्रव्योंका उत्पादक न हो (अद्रव्यत्व), तथा जो अनेक द्रव्योंसे उत्पन्न हुआ हो, अथवा अनेक द्रव्यों का उत्पादक हो ( अनेकद्रव्यत्व), उसे द्रव्य कहते हैं। सत्तामें द्रव्यका उक्त लक्षण घटित नहीं होता। सत्ता द्रव्यत्वकी तरह प्रत्येक द्रव्यमें रहती है, इसलिये सत्ता द्रव्य नहीं है । (ब ) सत्ता गुणसे भी भिन्न है। क्योंकि सत्ता गुणत्वकी तरह गुणोंमें रहती है। तथा गुण गुणोंमें नहीं रहते (निर्गुणत्वाद् गुणानाम् ) । (स) सत्ता कर्मसे भी भिन्न है, क्योंकि वह कर्मत्वकी तरह कर्ममें रहती है । तथा कर्म कर्ममें नहीं रहते।
'सत्ता' (सामान्य ) पर सामान्य और अपर सामान्यके भेदसे दो प्रकारकी है। ‘पदार्थत्व' (द्रव्य, गुण आदि छह पदार्थों में रहनेवाले) को पर सामान्य अथवा महासामान्य कहते हैं। द्रव्यत्व, गुणत्व आदि अपर सामान्य है। द्रव्यत्व आदिकी अपेक्षासे पृथिवीत्व आदि, और पृथिवीत्व आदिकी अपेक्षासे घटत्व आदि अपर सामान्य कहे जाते हैं । अपर सामान्य एक पदार्थको जानते समय उस पदार्थकी दूसरे पदार्थसे व्यावृत्ति करता है, इसलिये इसे सामान्य-विशेष भी कहते हैं। सत्ता अथवा सामान्यकी तरह 'विशेष' भी भिन्न पदार्थ हैं। 'विशेष' सजातीय और विजातीय पदार्थोंसे अत्यन्त व्यावृत्ति कराते हैं, अतएव 'विशेष' विशेष रूप ही हैं, सामान्य-विशेष रूप ये नहीं हो सकते। आधार और आधार्य पदार्थोंमें इहप्रत्ययका कारण 'समवाय' भी भिन्न पदार्थ है। 'इन तंतुओंमें पट है' यह इहप्रत्यय हेतु तंतु और पटमें समवाय संबन्ध स्थापित करता है।
जैन-(१) क-सत्ता ( अस्तित्व-वस्तुका स्वरूप ) को सम्पूर्ण छहों पदार्थोंमें स्वीकार करके भी वैशेषिक लोग द्रव्य, गुण और कर्ममें ही 'अस्तित्व' ( सत्ता) स्वीकार करते हैं, यह युक्तियुक्त नहीं है । तथा द्रव्य, गुण, कर्मकी तरह 'सामान्यप्रत्यय' ( सत्ता ) सामान्य, विशेष और समवायमें भी होता है, फिर कुछ पदार्थोंमें सामान्य ( सत्ता ) स्वीकार करना, और कुछमें नहीं, यह न्यायसंगत नहीं कहा जा सकता। तथा सामान्य, विशेष और समवायमें सत्ता माननेसे अनवस्था, रूपहानि, और असंबन्ध नामक दोष आते है, यह कथन ठीक नहीं; क्योंकि सामान्यकी तरह द्रव्य, गुण, कर्ममें सत्ता स्वीकार करनेसे भी अनवस्था दोष नहीं बच सकता। तथा विशेषमें सत्ता स्वीकार करनेपर उल्टी विशेषकी ही सिद्धि होती है, क्योंकि कहीं भी सामान्य रहित विशेषकी उपलब्धि नहीं होती। इसी प्रकार समवायमें भी सत्ता (स्वरूपसत्ता) माननी ही होगी।
ख-यदि सत्ताको द्रव्य, गुण और कमसे भिन्न माना जाय, तो द्रव्यादिको असत् मानना होगा। इसलिये सत्ता द्रव्य आदिसे भिन्न नहीं हो सकती।
वैशेषिक-(२)-ज्ञान आत्मासे भिन्न है, अर्थात् ज्ञान समवाय संबन्धसे आत्माके साथ रहता है। आत्मा स्वयं जड़ है। जिस समय हम किसी पदार्थका ज्ञान करते हैं, उस समय पहले पदार्थ और इन्द्रियका संयोग होता है, बादमें इन्द्रिय मनसे, और मन आत्मासे संबद्ध होता है। यदि आत्मा और ज्ञान