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अन्य. यो. व्य. श्लोक ८] स्याद्वादमञ्जरी "नटुंमि य छाउमत्थिए नाणे” इत्यागमात् । केवलं तु सर्वद्रव्यपर्यायगतं क्षायिकत्वेन निष्कलङ्कात्मस्वरूपत्वाद् अस्त्येव मोक्षावस्थायाम् । सुखं तु वैषयिकं तत्र नास्ति, तद्धेतोर्वेदनीयकर्मणोऽभावात् । यत्तु निरतिशयक्षयमनपेक्षमनन्तं च सुखं तद् बाढं विद्यते । दुःखस्य चाधर्ममूलत्वात् तदुच्छेदादुच्छेदः॥
नन्वेवं सुखस्यापि धर्ममूलत्वाद् धर्मस्य चोच्छेदात् तदपि न युज्यते । “पुण्यपापक्षयो मोक्षः” इत्यागमवचनात् । नैवम् । वैषयिकसुखस्यैव धर्ममूलत्वाद् भवतु तदुच्छेदः न पुनरनपेक्षस्यापि सुखस्योच्छेदः । इच्छाद्वेषयोः पुनर्मोहभेदत्वात् तस्य च समूलकाषंकषितत्वादभावः। प्रयत्नश्च क्रियाव्यापारगोचरो नास्त्येव, कृतकृत्यत्वात्। वीर्यान्तराय क्षयोपनतस्त्वस्त्येव प्रयत्नः, दानादिलब्धिवत् । न च क्वचिदुपयुज्यते, कृतार्थत्वात् । धर्माधर्मयोस्तु पुण्यपापा"छाद्मस्थिक ( केवलज्ञानके अतिरिक्त सब ज्ञानोंको छद्मस्थ ज्ञान कहते हैं ) ज्ञानके नष्ट होनेपर ( केवलज्ञान उत्पन्न होता है )" । केवलज्ञान सब द्रव्य और सब पर्यायोंको जानता है, और वह ज्ञानावरणीय कर्मके सर्वथा क्षयसे उत्पन्न होता है, इसलिये मोक्षावस्थामें निर्दोष केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है। वैषयिक सुख मोक्षमें नहीं है, क्योंकि वहाँ वैषयिक सुखके कारण वेदनीय कर्मका अभाव है। निरतिशय, अक्षय और अनन्त सुख मोक्षमें विद्यमान है । तथा दुःखके कारण अधर्मका नाश हो जानेसे मोक्षमें दुःखका भी अभाव हो जाता है।
शंका-सुखका कारण भी धर्म ही है, अतएव धर्मके उच्छेद हो जानेसे मुक्तात्माके सुख भी नहीं मानना चाहिये। आगममें कहा है-"पुण्य और पापके क्षय होनेपर मोक्ष होता है।" समाधान-यह ठीक नहीं है। क्योंकि वैषयिक सुख धर्मका कारण है, इसलिये मुक्त जीवके वैषयिक सुखका नाश हो जाता है, परन्तु उसके निरपेक्ष सुखका नाश नहीं होता। क्योंकि इच्छा और द्वेष मोहके भेद हैं, और मुक्त जीवके मोहका समूल नाश हो जाता है। तथा मुक्त जीवके कोई प्रयत्न भी नहीं होता, क्योंकि मुक्त जीव कृतकृत्य है। अथवा मुक्त जीवके दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य इन पाँच लब्धियों की तरह वीर्यान्तराय कर्म (जिस कर्मके उदयसे नीरोग बलवान युवक एक तृणके टुकड़ेको भी हिलाने में असमर्थ होता है, उसे वीर्यान्तरायकर्म कहते हैं ) के क्षयसे उत्पन्न वीर्यलब्धि रूप प्रयत्न मुक्त जीवके होता है। किन्तु मुक्त जीव कृतकृत्य रहते हैं, अतएव वे प्रयत्नका कभी उपयोग नहीं करते । तथा मुक्त जीवके धर्म-अधर्म अथवा पुण्यपापका उच्छेद भी रहता ही है, क्योंकि धर्म-अधर्मके रहनेपर मोक्ष नहीं मिल सकता। संस्कार मतिज्ञानका ही भेद है, अतएव मतिज्ञानके क्षय होनेके बाद हो संस्कारका भी नाश हो जाता है। इसलिये मुक्त आत्माके संस्कार भी नहीं होता। अतएव मुक्त अवस्थामें ज्ञान और सुखका अभाव है, यह कहना युक्तियुक्त नहीं है । यह श्लोकका अर्थ है ॥
भावार्थ-इस श्लोकमें वैशेषिक लोगोंके तीन सिद्धान्तोंपर विचार किया गया है-(१) सत्ता द्रव्य, गुण आदिसे भिन्न है; (२) आत्मा ज्ञानसे भिन्न है; (३) मुक्त अवस्थामें ज्ञान और सुखका अभाव हो जाता है।
वैशेषिक-(१) क-सत्ता द्रव्य, गुण और कर्ममें ही रहती है (द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता)-सत्ता (पर सामान्य अथवा महासामान्य) द्रव्य, गुण और कर्ममें ही रहती है, सामान्य, विशेष और समवायमें नहीं। वैशेषिकोंके अनुसार द्रव्य आदि तीन पदार्थों में ही सत्ता रहती है, क्योंकि इन तीनमें ही सत् प्रत्यय
१. उप्पण्णंमि अणंते नटुंमि य छाउमथिए नाणे। राईए संपत्तो महसेणवणंमि उज्जाणे ॥
छाया-उत्पन्नेऽनन्ते नष्टे च छानस्थिके ज्ञाने। रात्र्यां संप्राप्तो महसेनवनं उद्यानं ॥५३९॥ आवश्यकपूर्वविभागः। २ बलवता यूना रोगरहितेनापि पुंसा यस्य कर्मण उदयात्तृणमपि न तिर्यक्कतुं पार्यते तत्कर्म वीर्यान्तरायाख्यम् । ३ लब्धयः पञ्च । तथाहि-दानलाभभोगोपभोगवीर्यभेदात्पञ्चधा। सूत्रकृताङ्ग १-१२; तत्त्वार्थसू. २-५ ।