SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 114
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ८ _ तदेतत्सत्यम् । सांसारिकसुखस्य मधुदग्धधाराकरालमण्डलाप्रपासवद् दुःखरूपत्वादेव युक्तैव मुमुक्षूणां तज्जिहासा, किन्त्वात्यन्तिकसुखविशेषलिप्सूनामेव । इहापि विषयनिवृत्तिजं सुखमनुभव सिद्धमेव, तद् यदि मोक्षे विशिष्टं नास्ति, ततो मोक्षो दुःखरूप एवापद्यत इत्यर्थः । ये अपि दिपमधुनी एकत्र सम्पृक्ते त्यज्येते, ते अपि सुख विशेषलिप्सयैव । किञ्च, यथा प्राणिनां संसारावस्थायां सुखमिष्टं दुःखं चानिष्टम् , तथा मोक्षावस्थायां दुःखनिवृत्तिरिष्टा, सुखनिवृत्तिस्त्वनिष्टव । ततो यदि त्वदभिमतो मोक्षः स्यात् , तदा न प्रेक्षावतामत्र प्रवृत्तिः स्यात् । भवति चेयम् । ततः सिद्धो मोक्षः सुखसंवेदनस्वभावः प्रेक्षावत्प्रवृत्तेरन्यथानुपपत्तेः॥ अथ यदि सुखसंवेदनैकस्वभावो मोक्षः स्यात् तदा तद्रागेण प्रवर्तमानो मुमुक्षुर्न मोक्षमधिगच्छेत् । न हि रागिणां मोक्षोऽस्ति रागस्य बन्धनात्मकत्वात् । नैवम् । सांसारिकसुखमेव रागो बन्धनात्मकः विषयादिप्रवृत्तिहेतुत्वात् । मोक्षसुखे तु रागः तन्निवृत्तिहेतुत्वाद् न बन्धनात्मकः। परां कोटिमारूढस्य च स्पृहामात्ररूपोऽप्यसौ निवर्तते "मोक्षे भवे च सर्वत्र निःस्पृहो मुनिसत्तमः" इति वचनात् । अन्यथा भवत्पक्षेऽपि दुःखनिवृत्त्यात्मकमोक्षाङ्गीकृतौ दुःखविषयं कषायकालुष्यं केन निषिध्येत । इति सिद्धं कृत्स्नकर्मक्षयात् परमसुखसंवेदनात्मको मोक्षो, न बुद्धयादिविशेषगुणोच्छेदरूप इति ॥ ___अपि च भोस्तपस्विन् , कथञ्चिदेषामुच्छेदोऽस्माकमप्यभिमत एवेति मा विरूपं मनः कृथाः। तथाहि । बुद्धिशब्देन ज्ञानमुच्यते। तच्च मतिश्रुतावधिमनःपर्यायकेवलभेदात् पञ्चधा। तत्राद्यं ज्ञानचतुष्टयं लायोपशमिकत्वात् केवलज्ञानाविर्भावकाल एव प्रलीनम् । समाधान-यह ठीक नहीं । क्योंकि सांसारिक सुख शहदसे लिपटी हुई तीक्ष्ण धारवाली तलवारकी नोकको चाटनेके समान है, इसलिये सांसारिक सुख दुःखरूप है, अतएव मुमक्ष लोगोंको उसे त्यागना है ठीक है। अविनाशी सुख चाहनेवालोंको सांसारिक दुःख छोड़ना ही चाहिये। तथा, संसारमें भी विषयोंकी निवृत्तिसे उत्पन्न होनेवाला सुख अनुभवसे सिद्ध है । वह यदि विशिष्टरूपसे मोक्षमें नहीं है, तो मोक्षके दुःखरूप होनेसे मोक्ष त्याज्य है। तथा, एक साथ सम्मिलित विष और शहदका त्याग भी विशेष सुखकी इच्छासे ही किया जाता है ! तथा, जैसे प्राणियोंको सांसारिक अवस्थामें सुख इष्ट और दुःख अनिष्ट है, वैसे ही मोक्षावस्थामें दुःखकी निवृत्ति इष्ट और सुखकी निवृत्ति अनिष्ट है । अतएव यदि मोक्षमें ज्ञान और आनन्दका अभाव है, तो मोक्षमें किसी भी बुद्धिमानकी प्रवृत्ति न होनी चाहिये । अतएव मोक्ष सुख और ज्ञान रूप है। शंका-यदि मोक्षको सुख और ज्ञानरूप माना जाय, तो मोक्षमें राग भावसे प्रवृत्ति करनेवाले मुमुक्षुको मोक्षकी प्राप्ति न होनी चाहिये। क्योंकि राग बन्ध करनेवाला है, इसलिये रागी पुरुषोंको मोक्ष नहीं मिलता। समाधान-यह ठीक नहीं। क्योंकि सांसारिक सुख हो रागबन्धका हेतु है, क्योंकि यह सांसारिक सुखरूप राग ही विषय आदिको प्रवृत्तिमें कारण है। किन्तु मोक्षसुखका अनुराग विषय आदिकी प्रवृत्तिमें कारण नहीं है, इसलिये वह बन्धनका कारण नहीं। तथा, उत्कृष्ट दशाको प्राप्त हुए आत्माके इच्छामात्र भी यह राग नहीं रहता। कहा भी है-"उत्तम मुनि मोक्ष और संसार दोनोंमें निस्पृह रहते हैं।" अन्यथा रागका सद्भाव होनेपर दुःखकी अत्यन्त निवृत्ति रूपवैशेषिकोंके मोक्षमें भी दुःखरूप कषायका उत्पन्न होना सम्भव है। अतएव सम्पूर्ण कोंके क्षयसे उत्पन्न होनेवाला परम सुख और आनन्द स्वरूप ही मोक्ष मानना युक्तियुक्त है, बुद्धि आदि आत्माके विशेष गुणोंका उच्छेद होना नहीं। तथा, हम लोग भी बुद्धि आदिका कथंचित् उच्छेद ही मानते हैं, अतएव हे तपस्वी, आप निराश न हों। बुद्धिका अर्थ ज्ञान होता है। यह ज्ञान मति, श्रुति, अवधि, मनपर्याय और केवलज्ञानके भेदसे पांच प्रकारका है। इनमें आदिके चार ज्ञान क्षायोपशमिक (ज्ञानावरणीय कर्मके एकदेश क्षय और उपशमसे उत्पन्न होनेवाले ) हैं, इसलिये केवलज्ञानके उत्पन्न होनेके समय नष्ट हो जाते हैं। आगममें कहा है
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy