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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ८] स्याद्वादमञ्जरो न चायं सुखशब्दो दुःखाभावमात्रे वर्तते । मुख्यसुखवाच्यतायां बाधकाभावात् । अयं रोगाद् विप्रमुक्तः सुखी जात इत्यादिवाक्येषु च सुखीति प्रयोगस्य पौनरुक्त्यप्रसङ्गाच्च । दुःखाभावमात्रस्य रोगाद् विप्रमुक्त इतीयतैव गतत्वात् ।।। न च भवदुदीरितो मोक्षः पुंसामुपादेयतया संमतः। को हि नाम शिलाकल्पमपगतसकलसुखसंवेदनमात्मानमुपपादयितुं यतेत । दुःखसंवेदनरूपत्वादस्य सुखदुःखयोरेकस्याभावेऽपरस्यावश्यम्भावात् । अत एव त्वदुपहासः श्रूयते "वरं वृन्दावने रम्ये क्रोष्तृत्वमभिवान्छितम् । न तु वैशेषिकी मुक्तिं गौतमो गन्तुमिच्छति ।।" सोपाधिकसावधिकपरिमितानन्दनिष्यन्दात् स्वर्गादप्यधिकं तद्विपरीतानन्दमम्लानज्ञानं च मोक्षमाचक्षते विचक्षणाः। यदि तु जडः पाषाणनिर्विशेष एव तस्यामवस्थायामात्मा भवेत् , तदलमपवर्गेण । संसार एव वरमस्तु । यत्र तावदन्तरान्तरापि दुःखकलुषितमपि कियदपि सुखमनुभुज्यते। चिन्त्यतां तावत् किमल्पसुखानुभवो भव्य उत सर्वसुखोच्छेद एव ।। अथास्ति तथाभूते मोक्षे लाभातिरेकः प्रेक्षादक्षाणाम् । ते ह्येवं विवेचयन्ति । संसारे तावद् दुःखास्पृष्टं सुखं न सम्भवति, दुःखं चावश्यं हेयम् , विवेकहानं चानयोरेकभाजनपतितविषमधुनोरिव दुःशकम् , अत एव द्वे अपि त्यज्यते । अतश्च संसाराद् मोक्षः श्रेयान् । यतोऽत्र दुःखं सर्वथा न स्यात् । वरमियती कादाचित्कसुखमात्रापि त्यक्ता, न तु तस्याः दुःखभार इयान् व्यूढ इति ॥ यहाँपर सुखका अर्थ केवल दुःखका अभाव ही नहीं है। यदि सुखका अर्थ केवल दुःखका अभाव ही किया जाय, तो 'यह रोगी रोगरहित होकर सुखी हुआ है' आदि वाक्योंमें पुनरुक्ति दोष आना चाहिये । क्योंकि उक्त सम्पूर्ण वाक्य न कहकर 'यह रोगी रोगरहित हुआ है' इतना कहनेसे ही काम चल जाता है। तथा, शिलाके समान सम्पूर्ण सुखोंके संवेदनसे रहित वैशेषिकों द्वारा प्रतिपादित मुक्तिको प्राप्त करनेका कौन प्रयत्न करेगा? क्योंकि वैशेषिकोंके अनुसार पाषाणको तरह मुक्त जीव भी सुखके अनुभवसे रहित होते हैं, अतएव सुखका इच्छुक कोई भी प्राणी वैशेषिकोंकी मुक्तिको इच्छा न करेगी। तथा, यदि मोक्षमें सुखका अभाव हो, तो मोक्ष दुःख रूप होना चाहिये, क्योंकि सुख और दुखमें एकका अभाव होनेपर दूसरेका सद्भाव अवश्य रहता है। वैशेषिकोंकी मुक्तिका उपहास करते हुए कहा गया है __ "गौतम ऋषि वैशेषिकोंको मुक्ति प्राप्त करनेको अपेक्षा रमणीय वृन्दावनमें शृगाल होकर रहना अच्छा समझते हैं।" सोपाधिक और सावधिक परिमित आनन्दसे परिपूर्ण होनेके कारण स्वर्गसे भी अधिक अपरिमित आनन्द और निर्मल ज्ञानके प्राप्त करनेको विद्वान लोग मोक्ष कहते हैं। ऐसी अवस्थामें यदि आत्मा मोक्षमें पाषाणके समान जड़रूप हो रह जातो है, तो फिर ऐसे मोक्षकी ही क्या आवश्यकता है ? इससे अच्छा संसार ही है, जहाँ बीच बीचमें दु:खसे परिपूर्ण कमसे कम थोड़ा बहुत सुख तो मिलता रहता है। अतएव यह विचारणीय है कि सम्पूर्ण सुखोंका उच्छेद करनेवाले मोक्षको प्राप्त करना श्रेष्ठ है, अथवा संसारमें रहकर थोड़े बहुत सुखका उपभोग करना अच्छा है। शंका-मोक्षमें संसारको अपेक्षा अधिक सुख है, इसलिये मोक्ष ही ग्राह्य है, क्योंकि संसारमें दुःख रहित सुख सम्भव नहीं है। जैसे, एक ही पात्रमें रक्खे हुए शहद और विषका अलग करना बहुत कठिन है, उसी तरह सांसारिक सुख दुःखमें विवेकपूर्वक दुःखका त्याग करना कष्टसाध्य है । अतएव सुख-दुःख दोनोंको ही छोड़ देना श्रेयस्कर है। इसलिये संसारसे मोक्ष अच्छा है, क्योंकि मोक्षमें दुःखका सर्वथा अभाव है। कारण कि क्षणिक सुखसे उत्पन्न होनेवाले महान दुःखको भोगनेकी अपेक्षा उस क्षणिक सुखका त्याग कर देना ही श्रेयस्कर है।
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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