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________________ દર श्रीमद्राजचन्द्रजनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ८ स्थास्नूनामेव सतां भावानामुत्पादव्यययुक्तत्वात् इति विरुद्धश्च । इति नाधिकृतानुमानाद् बुद्धयादिगुणोच्छेदरूपा सिद्धिः सिद्धयति ॥ नापि "न हि वै सशरीरस्य" इत्यादेरागमात् । स हि शुभाशुभादृष्टपरिपाकजन्ये सांसारिकप्रियाप्रिये परस्परानुपक्ते अपेक्ष्य व्यवस्थितः। मुक्तिदशायां तु सकलादृष्टक्षयहेतुकमैकान्तिकमात्यन्तिकं च केवलं प्रियमेव, तत्कथं प्रतिपिध्यते । आगमस्य चायमर्थः, 'सशरीरस्य'–तिचतुष्टयान्यतमस्थानवर्तिन आत्मनः, 'प्रियाप्रिययो'-परस्परानुषक्तयोः सुखदुःखयोः 'अपहतिः'-अभावो, 'नास्तीति । अवश्यं हि तत्र सुखदुःखाभ्यां भाव्यम् । परस्परानुपक्तत्वं च समासकरणादभ्यूह्यते । 'अशरीरं'-मुक्तात्मानं, 'वा'शब्दस्यैवकारार्थत्वात् अशरीरमेव; 'वसन्तं'-सिद्धिक्षेत्रमध्यासीनं, 'प्रियाप्रिये'-परस्परानुषक्ते सुखदुःखे, 'न स्पृशतः ॥ इदमत्र हृदयम् । यथा किल संसारिणः सुखदुःखे परस्परानुषक्ते स्यातां, न तथा मुक्तात्मनः किन्तु केवलं सुखमेव । दुःखमूलस्य शरीरस्यवाभावात् । सुखं त्वात्मस्वरूपत्वादवस्थितमेव । स्वस्वरूपावस्थानं हि मोक्षः । अत एव चाशरीरमित्युक्तम् । आगमार्थश्वायमित्थमेव समर्थनीयः । यत एतदर्थानुपातिन्येव स्मृतिरपि दृश्यते "सुखमात्यन्तिकं यत्र बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् । तं वै मोक्षं विजानीयाद् दुष्प्रापमकृतात्मभिः ।।" रूपसे ध्रुव रहनेवाले पदार्थोके ही उत्पाद और व्यय होते हैं। आत्यन्तिक नाशका अभाव होनेपर भी एक ही पदार्थमें क्रमभावी परिणामोंकी उत्पत्ति होनेसे सन्तानत्व हेतु जैनों द्वारा स्वीकृत पदार्थके साथ अविनाभावी होनेसे विरुद्ध है। इस प्रकार सन्तानत्व हेतुसे वुद्धि आदिके उच्छेदरूप मोक्षकी सिद्धि नहीं होती। तथा, मोक्ष अवस्थामें सुखका अभाव सिद्ध करनेके लिए आप लोगोंने "न हि वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति" जो आगमका प्रमाण दिया है, वह भी साध्यकी सिद्धि नहीं करता। क्योंकि यहाँ जो मोक्षमें प्रिय-अप्रिय (सुख-दुःख ) का प्रतिपेध किया गया है, वह केवल शुभ-अशुभ अदृष्टके परिणामसे उत्पन्न, एक दूसरेसे सम्बद्ध, सांसारिक सुख-दुःख की अपेक्षासे ही किया गया है। मुक्तावस्थाका सुख समस्त पुण्य-पापके क्षयसे उत्पन्न होता है, इसलिए यह सुख ऐकान्तिक ( एकरूप) और आत्यन्तिक (नाश न होनेवाला) होता है; इस नित्य सुखका प्रतिपेध कैसे किया जा सकता है ? अतएव उक्त आगममें प्रिय-अप्रिय शब्दोंसे पुण्य-पापसे उत्पन्न होनेवाले सांसारिक सुख-दुःखका ही प्रतिषेध किया गया है, मुक्तावस्थाके अनन्त और अव्याबाध सुखका नहीं। इसलिये आगमका निम्नप्रकारसे अर्थ करना चाहिये:-'सशरीरस्य प्रियाप्रिययोः अपहतिः नास्ति'-संसारी आत्माके परस्पर अपेक्षित सुख-दुःखका अभाव नहीं होता। (यहाँ 'प्रियाप्रिय' में द्वंद्व समास करनेसे सुख-दुःखको परस्पर अपेक्षित समझना चाहिये)। 'अशरीरं वा वसन्तं प्रियाप्रिये न स्पृशतः'-मुक्तावस्थामें रहनेवाले मुक्तात्माको परस्पर अपेक्षित सुख-दुःखका स्पर्श नहीं होता। तात्पर्य यह है कि जैसे संसारी जीवके सुख-दुःख परस्पर अपेक्षित होते हैं, वैसे मुक्त जीवके नहीं होते । मुक्त जीवोंके केवल सुख ही होता है, क्योंकि उनके दुःखके कारण शरीरका अभाव है। तथा मुक्त जीव अपने आत्मस्वरूपमें स्थित रहते हैं, इसलिये उनके सुख ही होता है। कारण कि अपने स्वरूपमें अवस्थित होना ही मोक्ष है । इसीलिये मुक्त जीव शरीर रहित हैं। आगमसे इसका समर्थन होता है। स्मृतिने इसका समर्थन किया है "जिस अवस्थामें इन्द्रियोंसे बाह्य केवल बुद्धिसे ग्रहण करने योग्य आत्यन्तिक सुख विद्यमान है, वही मोक्ष है । पापी आत्माओंके लिये वह दुष्प्राप्य है।"
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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