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श्रीमदराजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां
[अन्य.यो. व्य. श्लोक ९
वताया गया है ) और केवलीसमुद्घातमें आठ समय लगते हैं । केवलीसमुद्घातमें पहले चार समयोंमें आत्माके प्रदेश क्रमसे दण्ड, कपाट, प्रतर ( मन्थान-लोकप्रकाश) और लोकपूर्ण होते हैं, तथा वादमें प्रतर (मन्थान ) कपाट और दण्ड-परिमाण होकर अपने स्थानको लौट जाते हैं। यहाँ केवलीसमुद्घात अवस्थामें ही आत्माको सर्वव्यापक कहा है। ) स्याद्वाद रूपी मंत्रके कवचसे अवगुण्ठित हम लोगों को इस प्रकार की विभीपिकाओंका भय नहीं है। यह श्लोकका अर्थ है ।
भावार्थ-इस श्लोकमें आत्माके सर्वव्यापकत्वका खंडन किया गया है। अनुमान-'जहाँ जिस वस्तुके गुण पाये जाते हैं, वह वस्तु उसी जगह उपलब्ध होती है, जैसे जहाँ घटके रूपादि गुण पाये जाते हैं, वहीं पर घट उपलब्ध होता है।'
शंका-पुष्पके एक स्थानमें रहनेपर भी उसकी गंध दूसरे स्थानमें भी देखी जाती है। समाधान-दूर देशमें पाये जानेवाली गंध पुष्पका गुण नहीं है, पुष्पमें रहनेवाले गंध पुद्गल ही उड़कर हमारी नाक तक आते हैं।
शंका-मंत्र आदि दूर स्थानसे भी मारण, उच्चाटन आदि क्रिया करते हैं। समाधान-मारण, उच्चाटन मंत्रका गुण नहीं हैं, परन्तु मंत्रके अधिष्ठाता देव ही मारण आदि क्रिया करने में समर्थ होते हैं । इसलिए 'आत्मा व्यापक नहीं है, क्योंकि आत्माके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते। जिसके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते, वह व्यापक नहीं होता, जैसे घटके गुण सर्वत्र उपलब्ध नहीं होते, इसलिए घट व्यापक नहीं है । आत्माके गुण भी सर्वत्र नहीं पाये जाते, इसलिए आत्मा भी व्यापक नहीं है। आकाश व्यापक है, इसलिये आकाशके गुण सर्वत्र पाये जाते हैं।'
शंका-अदृष्ट आत्माका गुण है। यह अदृष्ट दूर स्थानमें भी क्रिया करता है। यदि आत्माको सर्वव्यापक न मानें, तो अदृष्ट दूर देशमें क्रिया नहीं कर सकता। समाधान-अदृष्टके माननेकी कोई आवश्यकता नहीं है। अदृष्टकी सिद्धिमें हमें कोई प्रमाण भी नहीं मिलता। अग्निकी शिखाका ऊँचा जाना आदि कार्य वस्तुओंके स्वभावसे ही होते हैं। यदि अदृष्टसे सब कार्य होने लगें, तो फिर ईश्वरकी भी कोई आवश्यकता न रहे । तथा, आत्माको सर्वव्यापक मानकर उसे नाना स्वीकार करने में आत्माओंमें परस्पर भिड़न्त हो जानो चाहिये, और एक आत्माका सुख दूसरी आत्माको उपभोग करना चाहिये । तथा, सर्वव्यापक आत्माको ईश्वरकी आत्मामें प्रवेश करना चाहिए, इसलिए या तो ईश्वर भी सृष्टिकर्ता न रहेगा, अथवा आत्मा भी सृष्टिकर्ता हो जायेगा।
शंका-यदि आत्माको व्यापक न मानें तो आत्मा अपने दूसरे जन्मके शरीरके योग्य परमाणुओंको अपनी ओर कैसे आकर्षित कर सकता है ? यदि किसी तरह वह अपने शरीरके योग्य परमाणुओंको आकर्षित कर भी ले, तो भी आत्मा शरीर-परिमाण ही ठहरेगा, इसलिए आत्माको सावयव होनेसे कार्य (अनित्य ) मानना चाहिये । समाधान-जैन लोग आत्माको सावयव मानते हैं, इसलिए आत्मामें परिमाण भी होता है। हम लोग किसी भो पदार्थको एकन्त नित्य नहीं मानते ।
शंका-यदि आत्मा शरीर-परिमाण है, तो वह शरीरमें प्रवेश नहीं कर सकता, क्योंकि एक मर्त पदार्थका दूसरे मूर्त पदार्थमें प्रवेश नहीं हो सकता। समाधान-मूर्तत्वसे यदि आप लोगोंका अभिप्राय रूपादिको धारण करनेवालेसे है, तो हम लोग आत्माको रूप आदिसे युक्त नहीं मानते । हाँ, यदि अव्यापकत्वको आप लोग मूर्त कहते हैं, तो हम आत्माको अवश्य शरीर-परिमाण मानते हैं। अतएव जैनसिद्धान्त के अनुसार आत्मा द्रव्यकी अपेक्षा नित्य है, और पर्यायकी अपेक्षा अनित्य ।