SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५८ श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ८ तत्कथमनयोः साधर्म्यम् । न चैवं करणस्य द्वैविध्यमप्रसिद्धम् । यदाहुर्लाक्षणिकाः "करणं द्विविधं ज्ञेयं वाह्यमाभ्यन्तरं बुधैः। यथा लुनाति दात्रेण मेरुं गच्छति चेतसा" । यदि हि किञ्चित्करणमान्तरमेकान्तेन भिन्नमुपदर्यते, ततः स्याद् दृष्टान्तदाान्तिकयोः साधर्म्यम् , न च तथाविधमस्ति । न च वाह्यकरणगतो धर्मः सर्वोऽप्यान्तरे योजयितुं शक्यते, अन्यथा दीपेन चक्षुपा देवदत्तः पश्यतीत्यत्रापि दीपादिवत् चक्षुषोऽप्येकान्तेन देवदत्तस्य भेदः स्यात् । तथा च सति लोकप्रतीतिविरोध इति ॥ ___अपि च, साध्यविकलोऽपि वासीवर्धकिदृष्टान्तः। तथाहि । नायं वर्धकिः 'काष्ठमिदमनया वास्या घटयिष्ये' इत्येवं वासीग्रहणपरिणामेनापरिणतः सन् तामगृहीत्वा घटयति, किन्तु तथा परिणतस्तां गृहीत्वा। तथा परिणामे च वासिरपि तस्य काष्ठस्य घटने व्याप्रियते पुरुषोऽपि । इत्येवंलक्षणैककार्थसाधकत्वात् वासीवर्धक्योरभेदोऽप्युपपद्यते । तत्कथमनयोर्भेद एव इत्युच्यते । एवमात्मापि 'विवक्षितमर्थमनेन ज्ञानेन ज्ञास्यामि' इति ज्ञानग्रहणपरिणामवान् ज्ञानं गृहीत्वार्थ व्यवस्यति । ततश्च ज्ञानात्मनोरुभयोरपि संवित्तिलक्षणैककार्यसाधकत्वादभेद एव । एवं कर्तृकरणयोरभेदे सिद्धे संवित्तिलक्षणं कार्य किमात्मनि व्यवस्थितं, आहोस्विद् विपये इति वाच्यम् । आत्मनि चेत् , सिद्धं नः समीहितम् । विषये चेत् , कथमात्मनोऽनुभवः प्रतीयते। कुठारका दृष्टान्त विषम है। कारण कि कुठार बाह्य और ज्ञान आभ्यन्तर करण है, इसलिये दोनोंमें साधर्म्य नहीं हो सकता। इन वाह्य और अन्तरंग करणोंको वैयाकरणोंने भी स्वीकार किया है "वाह्य और अन्तरंगके भेदसे करण दो प्रकारका है । जैसे, वह कुठारसे काटता है, यहाँ कुठार वाह्य करण है; और वह मनसे मेरु पर्वतपर पहुँचता है, यहाँ मन अन्तरंग करण है।" अतएव जैसे कुठार रूप वाह्य करण बढ़ई रूप कर्तासे भिन्न है, वैसे ही यदि ज्ञान रूप अन्तरंग करण आत्मा रूप कर्तासे भिन्न होता, तो दृष्टान्त और दार्शन्तिकमें साधर्म्य हो सकता था, लेकिन आत्मा और ज्ञान भिन्न नहीं हैं। तथा वाह्य करणका धर्म अन्तरंग करणसे सम्बद्ध नहीं हो सकता, अन्यथा देवदत्त दोपक और नेत्रसे देखता है, यहाँ दीपकको तरह नेत्र भी देवदत्तसे सर्वथा भिन्न होना चाहिये। परन्तु ऐसा माननेसे लोकविरोध आता है। तथा, बढ़ई और कुठारका दृष्टान्त साध्यविकल भी है। क्योंकि 'मैं इस कुठारसे इस लकड़ीको बनाऊँगा' इस प्रकार कुठार ग्रहण करनेके मनोगत परिणामसे अपरिणत हुआ बढ़ई, कुठारको ग्रहण न कर लकड़ीको नहीं बनाता; किन्तु मनोगत परिणामसे परिणत हुआ बढ़ई लकड़ीको बनाता है। बढ़ईका उस प्रकारका मनोगत परिणाम उत्पन्न होनेपर लकड़ीको बनानेकी क्रियामें कुछार भी संलग्न हो जाता है, और बढ़ई भी। इस प्रकार लकड़ीको बनानेकी क्रिया रूप एक कार्यके साधक होनेसे कुठार और बढ़ईमें भेद नहीं रहता। ऐसी दशामें वढ़ई और कुठारमें, अर्थात् कर्ता और करणमें भेद ही होता है, यह कैसे कहा जा सकता है ? इसी प्रकार आत्मा भी 'विवक्षित अर्थको मैं इस ज्ञानके द्वारा जान लूंगा', इस प्रकार अपने ज्ञानको करण रूपसे ग्रहण करनेके परिणामसे परिणत हुई आत्मा ज्ञानको करण रूपसे ग्रहण कर अर्थको जानती है। अतएव ज्ञान और आत्मा दोनोंमें ज्ञानलक्षण रूप एक ही कार्यके साधक होनेके कारण, भेद नहीं रहता। ( इसलिए बढ़ई और कुठारका दृष्टान्त आत्मा और ज्ञानमें 'भेद' सिद्ध नहीं करता, अतएव साध्यविकल है। भाव यह है, कि जैसे काष्ठ कुठारसे बनाया जाता है, वैसे ही काष्ठ बढ़ईसे भी बनाया जाता है. इसलिये बढ़ई और कुठार दोनों एक ही क्रिया करते हैं, अतएव अभिन्न हैं। उसी प्रकार आत्मा और ज्ञान दोनों पदार्थके जानने रूप एक ही अर्थके साधक हैं, अतएव परस्पर अभिन्न है।) इस प्रकार कर्ता और करणमें अभेदकी सिद्धि होनेपर प्रश्न होता है कि संवित्ति (ज्ञान ) रूप कार्य आत्मामें (आत्माश्रित ) होता है, या पदार्थमें (ज्ञेयाश्रित) ? यदि ज्ञान आत्मामें ही उत्पन्न होता है, तो यह सिद्धान्त हमारे अनुकूल ही है। क्योंकि
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy