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________________ अन्य. यो. व्य. श्लोक ८] स्याद्वादमञ्जरी प्रदीपस्तत्स्वाभाव्याद् आत्मनं, परं च प्रकाशयति, तथा समवायस्येद्यगेव स्वभावो यदात्मानं, ज्ञानात्मानौ च सम्बन्धयतीति चेत्, ज्ञानात्मनोरपि किं न तथास्वभावता, येन स्वयमेवैतौ सम्बध्येते । किञ्च, प्रदीपदृष्टान्तोऽपि भवत्पक्षे न जाघटीति । यतः प्रदीपस्तावद् द्रव्यं, प्रकाशश्च तस्य धर्मः, धर्मधर्मिणोश्च त्वयात्यन्तं भेदोऽभ्युपगम्यते तत्कर्थं प्रदीपस्य प्रकाशात्मकता ? तदभावे च स्वपरप्रकाशस्वभावता भणितिर्निर्मूलैव ॥ ५७ यदि च प्रदीपात् प्रकाशस्यात्यन्तभेदेऽपि प्रदीपस्य स्वपर प्रकाशकत्वमिष्यते, तदा घटादीनामपि तदनुषज्यते, भेदाविशेषात् । अपि च तौ स्वपरसम्बन्धस्वभावौ समवायाद् भिन्नौ स्याताम् अभिन्नौ वा ? यदि भिन्नौ, ततस्तस्यैतौ स्वभावाविति कथं सम्बन्धः । सम्बन्धनिबन्धनस्य समवायान्तरस्यानवस्थाभयादनभ्युपगमात् । अथाभिन्नौ, ततः समवायमात्रमेव । न तौ । तद्व्यतिरिक्तत्वात् तत्स्वरूपवदिति । किञ्च यथा इह समवायिषु समवाय इति मतिः समवायं विनाप्युपपन्ना, तथा इहात्मनि ज्ञानमित्ययमपि प्रत्ययस्तं विनैव चेदुच्यते तदा को दोषः ॥ अथात्मा कर्ता, ज्ञानं च करणं, कर्तृकरणयोश्च वर्धकिवासीव' भेद एव प्रतीतः, तत्कथं ज्ञानात्मनोरभेदः इति चेत्, न । दृष्टान्तस्य वैषम्यात् । वासी हि बाह्यं करणं, ज्ञानं चान्तरं, आवश्यकता नहीं, समवाय अपने आप ही रहता है तो ज्ञान और आत्मामें भी वह अपने आप ही क्यों नहीं रहता ? यदि आप लोग कहें कि जैसे दीपक स्वप्रकाशन स्वभाववाला होनेसे अपने आपको और दूसरेको प्रकाशित करता है, वैसे ही समवायका इसी प्रकारका स्वभाव है कि जब वह ज्ञान और आत्माके साथ अपना सम्बन्ध कराता है तथा ज्ञान और आत्माका भी सम्बन्ध कराता है, तो फिर ज्ञान और आत्मा का उस प्रकारका स्वभाव क्यों नहीं मान लेते, जिसके कारण ये दोनों अपने-आप ही अन्योन्य सम्बन्ध को प्राप्त होते हैं ? तथा, इस कथन की पुष्टिमें दीपकका दृष्टान्त ही नहीं घटता; क्योंकि दीपक द्रव्य है, और प्रकाश उसका धर्म है । तथा, आप लोग धर्म और धर्मीका अत्यंन्त भेद मानते हैं, अतएव दीपक प्रकाश रूप कैसे हो सकता है ? दीपकके प्रकाश रूप न रहनेसे आपने जो दीपकको स्वपर प्रकाशक कहा, वह निराधार ही सिद्ध होगा । यदि दोपकसे प्रकाशके अत्यन्त भिन्न होनेपर भी दीपकको स्वपर प्रकाशक कहो, तो घट आदिको भी स्वपर-प्रकाशक कहनेमें कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिये, क्योंकि दीपककी तरह घट आदि भी प्रकाशसे अत्यन्त भिन्न हैं । तथा, समवायियोंके साथ अपना सम्बन्ध करानेका स्वभाव तथा समवायियों का एक दूसरेसे सम्बन्ध करानेका स्वभाव - समवायके ये दोनों स्वभाव समवायसे भिन्न हैं या अभिन्न ? यदि ये दोनों स्वभाव समवायसे भिन्न हों तो समवायियों के साथ अपना सम्बन्ध करानेका तथा समवायियोंका एक दूसरेके साथ सम्बन्ध करानेमें कारणभूत अन्य समवायको अनवस्थाके भयसे स्वीकार नहीं किया जा सकता। फिर, ये दोनों स्वभाव समवायके हैं, इस प्रकार समवाय और उसके दोनों स्वभावोंका सम्बन्ध कैसे हो सकता है ? यदि समवायके ये दोनों स्वभाव समवायसे अभिन्न हैं तो फिर उसे समवायमात्र ही कहना चाहिये । समवायका स्वरूप समवायत्व समवाय से भिन्न न होनेसे जिस प्रकार स्वतन्त्र नहीं होता, उसी प्रकार ये दोनों स्वभाव समवायसे भिन्न न होनेसे स्वतन्त्र नहीं हो सकते । तथा, जैसे 'इन समवायियों में समवाय है' यह बुद्धि प्रत्येक समवाय और समवायान्तर के बिना माने भी हो सकती है, इसी तरह 'इस आत्मा में ज्ञान है' यह ज्ञान भी समवायको भिन्न पदार्थ माने बिना ही क्यों नहीं होता ? शंका - आत्मा कर्ता है, और ज्ञान करण है । जैसे, बढ़ई कर्ता है, और वह अपने से भिन्न कुठार रूप करणसे कार्यको करता है, वैसे ही आत्मा कर्ता है, और वह अपनेसे भिन्न ज्ञान रूप करणसे पदार्थको जानता है, अतएव ज्ञान और आत्मा भिन्न हैं । समाधान - यह ठीक नहीं, क्योंकि यहाँ पर बढ़ई और १. वर्धकिस्त्वष्टा, वासी तच्छस्त्रम् । ८
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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