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श्रीमद्राजचन्द्रजैनशास्त्रमालायां [अन्य. यो. व्य. श्लोक ८ ___किञ्च, तर्वादिभिर्यो द्रव्यादित्रये मुख्यः सत्तासम्बन्धः कक्षीकृतः, सोऽपि विचार्यमाणो विज्ञीर्येत । तथाहि । यदि द्रव्यादिभ्योऽत्यन्तविलक्षणा सत्ता, तदा द्रव्यादीन्यसद्रपाणि स्युः। सत्तायोगात् सत्त्वमस्त्येवेति चेत्, असतां सत्तायोगेऽपि कुतः सत्त्वम् । सतां तु निष्फल: सत्तायोगः । स्वरूपसत्त्वं भावानामस्त्येवेति चेत्, तर्हि किं शिखण्डिना सत्तायोगेन । सत्तायोगात् प्राग भावो न सन् , नाप्यसन्, सत्तायोगात् तु सन्निति चेद्, वाङ्मात्रमेतत् । सदसद्विलक्षणस्य प्रकारान्तरस्यासम्भवात् । तस्मात् 'सतामपि स्यात् कचिदेव सत्तेति तेषां वचनं विदपां परिपदि कथमिव नोपहासाय जायते ।।
ज्ञानमपि यद्येकान्तेनात्मनः सकाशाद् भिन्नमिष्यते, तदा तेन चैत्रज्ञानेन मैत्रस्येव नैव विपयपरिच्छेदः स्यादात्मनः। अथ यत्रैवात्मनि समवायसम्बन्धेन समवेतं ज्ञानं तत्रैव भावावभासं करोतीति चेत्, न । समवायस्यैकत्वाद् नित्यत्वाद् व्यापकत्वाच्च सर्वत्र वृत्तेरविशेपात् समवायवदात्मनामपि व्यापकत्वादेकज्ञानेन सर्वेषां विषयावबोधप्रसङ्गः । यथा च घटे रूपादयः समवायसम्बन्धेन समवेताः, तद्विनाशे च तदाश्रयस्य घटस्यापि विनाशः, एवं ज्ञानमायात्मनि समवेतं, तच्च क्षणिक, ततस्तद्विनाशे आत्मनोऽपि विनाशापत्तेरनित्यत्वापत्तिः॥
__ अथास्तु समवायेन ज्ञानात्मनोः सम्बन्धः। किन्तु स एव समवायः केन तयोः सम्बध्यते ? समवायान्तरेण चेद् अनवस्था । स्वेनैव चेत् किं न ज्ञानात्मनोरपि तथा । अथ यथा
तथा, वैशेपिकोंने द्रव्य, गुण और कर्ममें जो मुख्य सत्ता स्वीकार की है, वह भी विचार करनेसे युक्तियुक्त नहीं ठहरती। क्योंकि यदि सत्ता द्रव्य आदिसे अत्यन्त भिन्न है, तो द्रव्यादिको असत् मानना चाहिए। यदि द्रव्यादिको सत्ताके सम्बन्धसे सत् मानो तो स्वयं असत् द्रव्यादि सत्ताके सम्बन्धसे भी सत् कैसे हो सकते है ? और यदि द्रव्यादि स्वयं सत् हैं, तो फिर उनमें सत्ताका सम्बन्ध मानना ही निष्प्रयोजन है । अर्थात् यदि पदार्थोमें स्वरूपसत्त्व स्वीकार करनेपर भी सत्ता मानी जाये तो ऐसी अकार्यकारी सत्ताका सम्बन्ध माननेसे हो क्या प्रयोजन ? यदि कहो कि सत्ताके सम्बन्धसे पहले द्रव्यादि पदार्थ न सत् थे, न असत्, किन्तु सत्ताके सम्बन्धसे सत्रूप होते हैं तो यह भी कथनमात्र है। क्योंकि सत् और असत्से विलक्षण कोई प्रकारान्तर आपके मतमें सम्भव नहीं जिससे आप लोग सत्ता सम्बन्धके पहले द्रव्यको 'न सत्' और 'न असत्' रूप मान सकें। अतएव 'सत् पदार्थों में भी सब पदार्थों में सत्ता नहीं रहती'-वैशेषिकोंका यह वचन उपहासके ही योग्य है।
(२) यदि ज्ञानको आत्मासे सर्वथा भिन्न मानो तो मैत्रसे भिन्न चैत्रके ज्ञानसे जिस प्रकार मैत्रको विषयोंका ज्ञान नहीं होता, उसी प्रकार आत्मासे सर्वथा भिन्न ज्ञानसे आत्माको (ज्ञेय) विषयोंका ज्ञान नहीं होगा । ( अर्थात् जैसे मैत्रसे चैत्रका ज्ञान भिन्न है, इसलिए चैत्रके ज्ञानसे मैत्रकी आत्माको पदार्थका ज्ञान नहीं होता, वैसे ही चैत्रका ज्ञान भी चैत्रकी आत्मासे भिन्न है, इस कारण चैत्रके ज्ञानसे चैत्रकी आत्माको भी पदार्थका ज्ञान न होना चाहिए)। यदि कहो कि जिस आत्मामें ज्ञान समवाय सम्बन्धसे विद्यमान है, उसी आत्मामें ज्ञान पदार्थों को जानता है, तो यह भी ठीक नहीं । क्योंकि समवाय एक, नित्य और व्यापक है, इसलिए वह सब पदार्थोंमें समान रूपसे रहता है । तथा समवायकी तरह आत्मा भी व्यापक है, इसलिए एक आत्मामें ज्ञान होनेसे सब आत्माओंको पदार्थोंका ज्ञान होना चाहिये। तथा जिस प्रकार रूपादि घटमें समवाय सम्बन्धसें रहते हैं, उसी तरह ज्ञान भी आत्मामें समवाय सम्बन्धसे रहता है। और जैसे रूपादिका नाश होनेपर रूपादिके आश्रय घटादिका भी नाश होता है, वैसे ही क्षणिक ज्ञानके नाश होनेपर आत्माका भी नाश हो जाना चाहिये । इस तरह आत्मा अनित्य ठहरती है।
यदि समवायसे ज्ञान और आत्माका सम्बन्ध मान भी लिया जाय, तो वह समवाय आत्मा और ज्ञानमें कौनसे सम्बन्धसे रहता है ? यदि ज्ञान और आत्मामें रहनेवाला समवाय दूसरे समवायसे रहता है तो इस प्रकार अनन्त समवाय माननेसे अनवस्था दोष आता है। यदि कहो कि समवायमें समवायान्तर मानने की