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________________ ५९ अन्य. यो. व्य. इलोक ८] स्याद्वादमञ्जरी अथ विषयस्थितसंवित्तेः सकाशादात्मनोऽनुभवः, तर्हि किं न पुरुषान्तरस्यापि, तद्भेदाविशेषात् ॥ अथ ज्ञानात्मनोरभेदपक्षे कथं कर्तृकरणभावः इति चेत्, ननु यथा सर्प आत्मानमात्मना वेष्टयतीत्यत्र अभेदे यथा कर्तृकरणभावस्तथानापि । अथ परिकल्पितोऽयं कर्तृकरणभाव इति चेद् , वेष्टनावस्थायां प्रागवस्थाविलक्षणगतिनिरोधलक्षणार्थक्रियादर्शनात् कथं परिकल्पितत्वम् । न हि परिकल्पनाशतैरपि शैलस्तम्भ आत्मानमात्मना वेष्टयतीति वक्तुं शक्यम् । तस्मादभेदेऽपि कर्तृकरणभावः सिद्ध एव । किञ्च, चैतन्यमिति शब्दस्य चिन्त्यतामन्वर्थः । चेतनस्य भावश्चैतन्यम् । चेतनश्चात्मा त्वयापि कीर्त्यते । तस्य भावः स्वरूपं चैतन्यम् । यच्च यस्य स्वरूपं, न तत् ततो भिन्नं भवितुमर्हति, यथा वृक्षाद् वृक्षस्वरूपम् ॥ अथास्ति चेतन आत्मा, परं चेतनासमवायसम्बन्धात् , न स्वतः, तथाप्रतीतेः इति चेत् । तदयुक्तम् । यतः प्रतीतिश्चेत् प्रमाणीक्रियते, तर्हि निर्बाधमुपयोगात्मक एवात्मा प्रसिद्धयति । न हि जातुचित् स्वयमचेतनोऽहं चेतनायोगात् चेतनः, अचेतने वा मयि चेतनायाः समवाय इति प्रतीतिरस्ति । ज्ञाताहमिति समानाधिकरणतया प्रतीतेः। भेदे तथाप्रतीतिरिति चेत , न । कथंचित् तादात्म्याभावे सामानाधिकरण्यप्रतीतेरदर्शनात् । यष्टिः पुरुष इत्यादिप्रतीतिस्तु भेदे सत्युपचाराद् दृष्टा, न पुनस्तात्त्विकी । उपचारस्य तु बीजं पुरुषस्य यष्टिगतस्तब्धत्वादिगुणैरभेदः, उपचारस्य मुख्यार्थस्पर्शित्वात् । तथा चात्मनि ज्ञाताहमिति प्रतीतिः कथञ्चित् चेतनात्मतां हमलोग (जैन) भी ज्ञानको आत्मामें ही मानते हैं। यदि कहो कि संवित्तिलक्षण कार्य ज्ञेय पदार्थमें उत्पन्न होता है, तो अन्य पुरुषको-जिसने अपने ज्ञानको कारण रूपसे ग्रहण नहीं किया, उस पुरुषको-भी ज्ञेयका ज्ञान क्यों नहीं होता? अपने ज्ञानको करण रूपसे ग्रहण करनेवाले पुरुषसे जिस प्रकार ज्ञेय भिन्न होता है, उसी प्रकार अन्य पुरुष से भी वह भिन्न होता है।। शंका-ज्ञान और आत्मामें अभेद माननेपर कर्ता और करण सम्बन्ध नहीं बन सकता। समाधान-जैसे, 'सर्प अपने आपको अपनेसे वेष्टित करता है'-यहाँ कर्ता और करणके अभेद होनेपर भी कर्ता और करण भाव बनता है, वैसे ही आत्मा और ज्ञानके अभिन्न होनेपर भी कर्ता और करण भावमें कोई बाधा नहीं आती। यदि कहो कि यह कर्ता और करण भाव कल्पना मात्र है, तो यह ठीक नहीं; क्योंकि सर्पकी वेष्टन अवस्थामें प्राक् अवस्थासे विलक्षण गतिनिरोध लक्षण रूप अर्थ क्रिया देखी जाती है । तथा, सैकड़ों कल्पनायें करनेसे भी पाषाणका स्तंभ अपने आपको अपनेसे वेष्टित नहीं कर सकता। इसलिए कर्ता और करण भावको कल्पित कहना ठीक नहीं है। अतएव ज्ञान और आत्मा में अभेद मानने पर भी कर्ता और करण भाव सिद्ध होता है। तथा, चेतनके भावको चैतन्य कहते हैं । आत्माको आप लोगोंने भी चेतन स्वीकार किया है । चैतन्य आत्माका स्वरूप है। जो जिसका स्वरूप होता है, वह उससे भिन्न नहीं होता; जैसे, वृक्षका स्वरूप वृक्षसे भिन्न नहीं है। इसलिए ज्ञान और आत्माको भिन्न मानना ठीक नहीं है। यदि कहो कि आत्मा समवाय सम्बन्धसे चेतन है, स्वयं चेतन नहीं, क्योंकि इसी प्रकारका ज्ञान होता है, तो यह भी ठीक नहीं। कारण कि यदि आप लोग ज्ञान (प्रतीति ) को ही प्रमाण मानते हैं, तो आत्माको निश्चयसे उपयोग रूप ही मानना चाहिये। क्योंकि कभी भी ऐसा ज्ञान नहीं होता कि मैं स्वयं अचेतन होकर चेतनाके सम्बन्धसे चेतन हूँ, अथवा मेरी अचेतन आत्मामें चेतनका समवाय होता है । इसके विपरीत, आत्मा और ज्ञानके एक-अधिकरणमें रहनेका हो ज्ञान होता है कि मैं ज्ञाता हूँ। यदि आप कहें कि आत्मा और ज्ञानका भेद माननेपर भी आत्मा और ज्ञानका एक-अधिकरण बन सकता है, तो यह भी ठीक नहीं। क्योंकि कथंचित् तादात्म्य ( अभिन्न ) सम्बन्धके बिना एक-अधिकरणकी प्रतीति नहीं हो सकती। 'पुरुप यष्टि है' यह ज्ञान पुरुप और यष्टिके वास्तविक भेद होनेपर भी वास्तविक नहीं है, यह केवल उपचारसे होता है। 'पुरुप यष्टि है' इस उपचारका कारण यष्टिके स्तब्धता आदि गुणोंका पुरुपके स्तब्धता आदि गुणों के साथ अभेद है, क्योंकि उपचार मुख्य अर्थको स्पर्श करनेवाला होता है ( यहाँ यटिका
SR No.009653
Book TitleSyadvada Manjari
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year1970
Total Pages454
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size193 MB
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