________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
यही है जिंदगी
८०
४०. आवरण उतार दो आग्रह के
३
0 क्या आत्मा में मुक्ति की कामना जाग्रत हुई है? 0 क्या मैं मुमुक्षु बना हूँ? 0 क्या आन्तर-बाह्य बंधन अप्रिय लगते हैं? O क्या चित्त अनाग्रही बना है? 0 क्या समता का संग प्रिय लगता है? कितने-कितने प्रश्न अंतरात्मा में उभरते हैं? जहाँ एकान्त मिला, ऐसे प्रश्नों की परंपरा शुरू! जब प्रश्नों के सुखद प्रत्युत्तर नहीं मिलते हैं, मन बेचैनी से भर जाता है।
आत्मा के प्रदेश-प्रदेश में खोजता हूँ, उस मुक्ति की कामना को! बहुत दिनों से खोजता हूँ... नहीं मिल रही है वह कामना। यदि आत्मा में मुक्ति की कामना ही नहीं है तो फिर मुमुक्षु कैसे कहा जा सकता हूँ? मुमुक्षुता बिना का मुमुक्षु यानी मानवता बिना का मानव! मानवता न हो तो मानव कैसा? यदि केवल मानव देह से मानव माना जा सकता हो, तो केवल वेशभूषा से मुमुक्षु मान लें! नहीं, नहीं, इस तरह अपने आपको मुमुक्षु कैसे मान लूँ?
कितने-कितने बाह्य बंधन प्रिय हैं... कितने-कितने आन्तर बंधन प्रिय हैं? क्रोध प्रिय है, इसलिए तो क्रोध का सहारा लेता हूँ! अभिमान प्रिय है, इसलिए अभिमान का सहयोग लेता हूँ! माया और लोभ प्रिय है, इसलिए माया और लोभ का सहकार लेता हूँ! ये जो प्रिय हैं वे ही तो बंधन हैं!
वैसे पाँच इन्द्रियों के कितने विषय प्रिय हैं! शब्द, रूप, रस, गंध और स्पर्श के असंख्य विषयों का राग कितना प्रगाढ़ बंधन है? जब तक विषयों का राग अखंड बना रहा है तब तक मुक्ति से प्रेम कैसे हो सकता है? क्या विषयों का राग बुरा लगता है? यदि वैषयिक राग बुरा नहीं लगता है तो आत्मा की शुद्ध अवस्था का... परमात्मदशा का अनुराग अच्छा कैसे लगेगा? मन निरंतर बंधनों से प्यार कर रहा है... अंतरात्मा मुक्ति की इच्छा में तड़प रही है। __ मन कितने-कितने आग्रहों में बंध गया है? मुमुक्षु अनाग्रही होना चाहिए । परोक्ष पदार्थ के निर्णय में भी आग्रह अनावश्यक है। परोक्ष बातों को सिद्ध करने के लिए अनेक तर्क करना भी व्यर्थ है। शुष्क तर्क नहीं करने चाहिए |
For Private And Personal Use Only