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यही है जिंदगी शुष्क तर्कों की जाल बिछानेवालों पर मिथ्या अभिमान सवार हो ही जाता है।
ऐसे शुष्क तर्क करने वाले पण्डितों को नहीं देखे हैं क्या? उनका अपार मिथ्याभिमान नहीं देखा है क्या! इससे मुमुक्षुता कलंकित होती है। मुमुक्षु शुष्क तर्क करने वाला शुष्क पण्डित नहीं होता है। मुमुक्षु तो आत्मानुभव की ओर निरन्तर प्रगति करता साधक-महात्मा होता है।
मुमुक्षु सदैव समता का संग करता है। एक क्षण भी वह समता का त्याग नहीं करता है। यानी प्रबल राग-द्वेष में फँसता नहीं है । मुमुक्षु के मन में समता होती है... वाणी में समता होती है... कार्यकलाप में समता होती है। समता को सुरक्षित रखने के लिए वह निरन्तर जाग्रत बना रहता है। कहीं पर भी विषमता नहीं, कहीं पर भी व्याकुलता नहीं। कैसे भी विषम संयोग पैदा हो जाए, कैसी भी विषम परिस्थिति पैदा हो जाए... मुमुक्षु समता का संग नहीं छोड़ सकता है।
सदैव चित्त अनाग्रही बना रहे और निरन्तर समता का साथ बना रहे... तो मुमुक्षु-जीवन धन्य बन जाय, कृतार्थ हो जाय | आन्तर-बाह्य बंधन अप्रिय हो जाए और मुक्ति की कामना प्रबल बन जाए... अपूर्व आत्मानन्द की अनुभूति होने लगे। कब ऐसे धन्य क्षण आयेंगे जीवन में?
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