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यही है जिंदगी
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‘मैंने उसके लिये अपना सुख छोड़ा।' यह मान्यता... यह धारणा तब दुःख देती है, जब वह व्यक्ति मेरे लिये अपने सुखों का त्याग नहीं करता है ! 'मैंने तेरे लिये अपने सुखों का त्याग किया था और तू अब मेरे लिये सुखों का त्याग नहीं करता है?' यह धारणा मनुष्य को दुःखी करती है । 'मैंने तुझे उस समय दुःख में सहायता की थी और आज तू मेरे दुःखों को देखते हुए भी हँसता रहता है? मुझे सहायता नहीं करता है?' यह विकल्प त्रासदायक बनता है।
दूसरे जीवों को सुख देते समय, दूसरे जीवों का दुःख दूर करते समय यह सावधानी बरतनी ही होगी ! कर्तृत्व का अभिमान जरा-सा भी न आ जाय! 'मैं परभावों का कर्ता नहीं हूँ... । ' इस तत्त्वज्ञान को आत्मसात् करना ही होगा ।
मानसिक विकल्पों से जो अशांति पैदा होती है, उस अशांति को तत्त्वज्ञान से ही मिटाया जा सकता है। दूसरा कोई उपाय नहीं है । तत्त्वज्ञान आत्मसात् होना चाहिए। तत्त्वज्ञान और विचारों में भेद नहीं रह जाना चाहिए। जैसा तत्त्वज्ञान वैसा विचार, जैसा विचार वैसा तत्त्वज्ञान ! ऐसी आत्मस्थिति का निर्माण करना चाहिए ।
चाहता हूँ कि तत्त्वज्ञान से भिन्न मेरा कोई विचार शेष न रहे ! स्व और पर सभी के लिये मेरे विचार तत्त्वज्ञानमय बने रहें...! परंतु यह कब होगा ? कभीकभी ‘व्यवहारमार्ग’ से टकराव हो जाता है...! कुछ अज्ञानमूलक... मोहमूलक व्यवहार धर्मक्षेत्र में भी प्रविष्ट हो गये हैं, जहाँ कोई धर्मग्रन्थ साक्षी नहीं होता है! फिर भी उन व्यवहारों का पालन करना अनिवार्य होता है! कोई विवशता होती है न!
‘परभावों का... परद्रव्यों का मैं कर्ता नहीं हूँ...।' इस तत्त्वज्ञान को आत्मसात् करना है... कब होगा ? दृढ़ संकल्प के साथ परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि 'हे भगवंत! मेरा कर्तृत्व-अभिमान निर्मूल कर दे... ।' यदि परमात्मा की दिव्य कृपा से काम हो जाए, तो धन्य बन जाऊँ! मानवजीवन की एक बहुत बड़ी उपलब्धि हो जाए ।
उस भाई को तो शान्त कर दिया था... परन्तु अपने आपको उपशान्त करने के लिये... अपने मन को प्रशान्त करने के लिये निरन्तर यह चिन्तन करता रहता हूँ।
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