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यही है जिंदगी
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व५०. अभिनय जब जीवित हो उठता है।
अभिनयसम्राट आषाढ़ाभूति चक्रवर्ती भरत का अभिनय कर रहे थे। हजारों दर्शक चक्रवर्ती भरत के आईना-भवन में भरत का अनुपम-अद्वितीय सौन्दर्य देखकर मुग्ध बन गये थे। चक्रवर्ती भरत आईना में अपना शृंगार देखने में लीन थे... और उनकी एक अंगुली में से मुद्रिका निकल गई, जमीन पर गिर गई...।
चक्रवर्ती भरत क्षणभर मुद्रिका को देखने के पश्चात, मुद्रिकारहित अपनी अंगुली को देखते रहे और तत्त्वचिंतन में डूबने लगे। उनके मुख से वह तत्त्वचिंतन धीर-गंभीर ध्वनि में प्रस्फुटित होने लगा... दर्शक मंत्रमुग्ध बने सुनते रहे।
चक्रवर्ती का तत्त्वचिंतन गहरा बनता चला... उनकी आत्मा बोलने लगी... आत्मा पर लगे हुए मोह और अज्ञान के बंधन टूटने लगे और अभिनय वास्तविकता में बदल गया! चक्रवर्ती का अभिनय करनेवाले आषाढ़ाभूति स्वयं सर्वज्ञ-वीतराग बन गये! आकाश में देव प्रगट हुए और आषाढ़ाभूति को नमन कर, उनको साधुवेश समर्पित किया। उसी नाटकगृह में देवों ने घोषणा की : 'आषाढ़ाभूति रागविजेता बने हैं, सर्वज्ञ-वीतराग बने हैं...।'
नाटकगृह में कैसा सन्नाटा छा गया होगा? जब उस प्रसंग को कल्पना की आँखों से देखता हूँ... मैं भी स्तब्ध हो जाता हूँ। श्रमण जीवन का त्याग कर, दो अभिनेत्रियों के मोहपाश में जकड़ा हुआ वह आषाढ़ाभूति अभिनय करतेकरते आत्मा की पूर्णता पा लेता है... और मैं, त्याग और संयम के पथ पर चलनेवाला मैं... कई बार तत्त्वचिंतन... आत्मचिंतन में डूबनेवाला मैं... क्यों मोहविजेता-वीतराग नहीं बन पाया? प्रश्न पैदा होता है... हृदय में व्यथा होती है... और उदासी के सागर में डूबने लगता हूँ। ___ आषाढ़ाभूति का वह तत्त्वचिंतन जिससे उन्होंने वीतरागता पा ली, सर्वज्ञता पा ली, क्यों किसी पूर्ण ज्ञानी ने लिपिबद्ध नहीं किया? क्यों उस चिंतन का कोई शास्त्र नहीं बना? क्यों वह चिंतन मुमुक्षुओं के लिये संग्रहीत नहीं हुआ? कहते हैं कि उन्होंने 'अनित्य-भावना' का चिंतन किया था... तो मैं भी कई बार अनित्य भावना का चिन्तन करता हूँ! कई साधक-साधिकाएँ चिन्तन करते हैं... क्यों वे मोहविजेता-वीतराग नहीं बनते हैं? इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल रहा
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