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संबंध जन्म जन्म का 'ये आप आज न जाने, किसी महात्मा की-सी बातें क्यों कर रहे हो?' 'तुझे तो वैसे भी महात्मा की वाणी अच्छी लगती है, है न?' 'अच्छा... चलो, जो मुझे पसंद होगा वही आप बोलेंगे न?' 'बिलकुल! सबंध को अखंड रखना हो तो तुम्हें भी वैसा ही बोलना पड़ेगा जैसा मुझे पसंद हो! 'एक-दूसरे की पसंदगी-नापसंदगी को जान लेना होगा!'
'हाँ...बाबा...हाँ! पर अभी तो हमको सो जाना पसंद है! क्यों, क्या इरादा है आपका?'
सुबह सुरसुंदरी तो जल्दी जग गयी! आवश्यक कार्यों से निपटकर, शुद्धश्वेत वस्त्र धारण करके, साफ जगह पर आसन बिछाकर उसने नवकार मंत्र का जाप प्रारंभ किया।
अमरकुमार जगा। उसने सुरसुंदरी की ओर देखा ।
श्वेत वस्त्र! ध्यानस्थ मुद्रा! चेहरे पर प्रशांतता! जैसे कोई योगिनी बैठी हो, वैसी सुरसुंदरी प्रतीत हो रही थी। अमरकुमार का मन हँस पड़ा। सुरसुंदरी को ज़रा भी विक्षेप न हो, इस ढंग से वह खड़ा होकर बाहर निकल गया।
स्नान वगैरह से निवृत्त होकर अमरकुमार मुख्य नाविक से मिला । बारह जहाजों के बारे में जानकारी प्राप्त की। समुद्र के बदले वायुमंडल की बातें की। चंपानगरी से कितनी दूर आये... यह भी जान लिया ।
'कुमार सेठ, अपने पास दिन निकल जाए उतना तो मीठा पानी है... पर कल हमको किसी द्वीप पर रूकना होगा, पानी भरने के लिए।'
नाविक ने अमरकुमार से कहा, अमरकुमार ने पूछा : ‘रास्ते में कोई ऐसा द्वीप आता है?' _ 'जी, एक यक्षद्वीप आता हैं। उस द्वीप पर पीने का मीठा पानी भी मिल जाएगा।'
'तब तो हम कल वहीं पर डेरा डाल दे। द्वीप है तो सुंदर न?' 'अत्यंत रमणीय द्वीप है। फूल-फल से हरे-भरे असंख्य पेड़-पौधे हैं... उद्यान है... बगीचे हैं... पर एक बड़ा भय हैं... वहाँ जाने में!'
'किससे?'
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