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संबंध जन्म जन्म का
'किसी ज्ञानी महापुरूष का मिलना हो, तो मुझे इतना तो पूछना ही है कि हमारा इतना गहरा स्नेह संबंध कितने जन्मों का है?'
'और मैं पूछंगी कि प्रभो, हमारा यह भीतरी नाता निर्वाण तक अखंड रहेगा न?' 'जी, नहीं रह सकता!' 'मैं आपसे थोड़े ही पूछ रही हूँ?' 'मैं क्या विशिष्टि ज्ञानी नहीं हूँ?' 'आप ज्ञानी जरूर हैं, पर परोक्ष ज्ञानी... नहीं कि प्रत्यक्ष ज्ञानी ।'
'फिर भी मैं इतना तो ज़रूर कह सकता हूँ कि यदि अपना मोक्ष होनेवाला होगा, तो फिर यह रिश्ता नहीं रहेगा।
'पर क्यों?'
'चूंकि, अपना रिश्ता भावजन्य हैं... भावुकता जब तक हो तब तक वीतराग दशा प्राप्त हो सकेगी? ।'
'यह बात तो आपकी बिलकुल सही है... कि भावुकता चली जाए और वीतरागता नहीं आए... पर मेरा कहना तो यह, है कि अनुराग जाए और द्वेष नहीं आ जाना चाहिए।'
'अनुराग है तो कभी न कभी द्वेष के चले आने की संभावना तो रहेगी न, राग व द्वेष तो ज़िगरी दोस्त हैं न? 'कैसे? ये दोनों तो परस्पर विरोधी तत्त्व हैं।' 'फिर भी एक के बगैर दूसरे का अस्तित्व नहीं है।' 'राग-द्वेष के अस्तित्व में भी संबंध तो टिकेगा न?' 'संबंध अखंड नहीं रहेगा... संसार के सभी संबंध अनित्य हैं।'
'एक जनम में संबंध अखंड व अक्षुण्ण रहने की बातें शास्त्रों में भी तो आती है न? अरे, नौ-नौ जन्म तक संबंध अखंड रहने के उदाहरण मेरे पास मौजूद हैं।'
'वह तो मैं भी जानता हूँ।' 'तब तो अपना संबंध भी अखंड रहेगा। रहेगा न?' 'मेरी भीतरी अभीप्सा यही है, सुर | पर इस संसार में जीवात्मा की हर अभिलाषा सफल होती है, ऐसा हमेंशा कहाँ होता है!'
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