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संबंध जन्म जन्म का
'बिलकुल सही बात है आपकी... वर्तमान के मधुर क्षणों में डूबा, तल्लीन मन पुरानी यादों से दूर रहता ही है!' ___'अब हम अंदर के कक्ष में चलें... अंधेरे के साये उतरने लगे हैं। भीतर बैठकर सागर की लहरों के ध्वनि में डूबेंगे... चलो!'
दोनों अपने शयनकक्ष में आये । परिचारिक ने कक्ष में दीये जलाकर रख दिये थे। ___ कपड़े बदलकर सुंदरी अमर के सामने बैठी थी। अमरकुमार सुंदरी के चेहरे पर निगाह बिछाये बैठा था। सुंदरी शरमाने लगी... उसने पूछा : 'क्यों खामोश हो?' 'सोच रहा हूँ! 'ओह? सोच रहे या देख रहे हो?' 'दोनों एक साथ कर रहा हूँ!' 'क्या सोच रहे हो?' 'तू साथ आयी, यह ठीक हुआ।' ‘पर तुम तो बिलकुल ही अस्वीकर कर रहे थे न मेरा कहना।' 'अरे बाबा! इसलिए तो कह रहा हूँ... मैंने अपनी ज़िद्द छोड़ दी और तूने अपनी ज़िद्द पकड़ रखी - वह अच्छा हुआ!' ।
'यह बस इस यात्रा में ठीक लगता है... सिंहलद्वीप पहुँचकर व्यापार में उलझे कि... फिर!' 'ऊँहूँ... तब भी नापसंद नहीं होगा तेरे साथ आना!'
'दिन-भर धंधे-धापे में उलझकर जब शाम को घर लौटूंगा तब तेरा सान्निध्य पाकर मेरी थकान उतर जायेगी! उकताहट दूर हो जायेगी।'
मैं अपने आपको कितनी खुशक़िस्मत समझती हूँ? ज़िंदगी की अंतिम क्षणों तक मैं तुम्हें सुख देती रहूँ... आनंद व प्रसन्नता देती रहूँ... आत्मकल्याण में सहयात्री बनूँ... यही मेरा जीवन बना रहे । यही तो मेरी इच्छा है?' सुंदरी का स्वर भीगने लगा। अमरकुमार का दिल भी खिल उठा।
'सुर... एक विचार कौंधता हैं, कभी-कभी दिमाग में!' 'वह क्या?'
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