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[१३. संबंध जन्म-जन्म का!!
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सुरसुंदरी एवं अमरकुमार, दोनों के लिए यह पहली-पहली समुद्र की सैर थी। संस्कृत-प्राकृत काव्यों में उन्होंने समुद्र की रोचक और रोमांचक बातें पढ़ी थीं! धर्मग्रंथों में भी संसार को सागर की दी गयी उपमा से वे परिचित थे! 'संसार एक अनंत-असीम सागर है,' - ऐसे शब्द भी उन्होंने जैनाचार्यों के मुँह से सुन रखे थे। 'सागर के खारे पानी जैसे संसार के सुख हैं-' वह उपदेश भी उन्होंने सुना था।
अतल सागर पर फैली अनंत जलराशि की छाती को चीरते हुए बारह जहाजों का काफ़िला चला जा रहा था। सिंहलद्वीप की ओर जहाज आगे बढ़ रहे थे। अमरकुमार और सुरसुंदरी अपने जहाज के डेक पर खड़े थे। सूर्यास्त से पहले ही भोजन वगैरह निपटकर, साँझ के सौंदर्य को समुद्र पर बिखरा हुआ देखने के लिए दोनों डेक पर चले आये थे। दोनों के मन विभोर थे। हृदय एकदम खिले-खिले थे।
उत्कट इच्छा की संपूर्ति हो चुकी थी... प्रिय स्वजन की सम्मति थी। भावों की अभिव्यक्ति करने के लिए वातावरण अनुकूल था और सामने अनंत सागर का उफनता उत्संग था। ___ 'सुंदरी, क्यों चुप्पी साधे बैठी हो?' टकटकी बाँधे क्षितिज की ओर निहारती सुंदरी के कानों पर अमर के शब्द टकराये। उसने अमर के सामने देखा। उसकी आँखों से झरते स्नेहरस को पिया और बोली :
'अत्यंत आनंद कभी वाणी को मूक बना देता है... है न स्वामिन! सुंदरी ने अमर की हथेली को अपने कोमल हाथों में बाँधते हुए कहा। 'मैं तो और ही कल्पना में चला गया था...' 'कौन सी कल्पना?' 'शायद तू घर की यादों में... माँ-बाप की यादों में खो गयी होगी!'
'एक प्रियजन से ज्यादा प्रिय स्वजन जब निकट हो तब वह प्रियजन याद नहीं आता!'
'और एक नया आह्लादक व मनोहारी वातावरण मिलता है, तब भी पहले की स्मृतियाँ पीछा नहीं करतीं।'
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