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माँ का दिल
७३
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१२. माँ का दिल |
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अमर की बात जानकर धनवती अत्यंत व्यथित हो उठी। सुरसुंदरी ने भी अमर ही के साथ परदेश जाने की ज़िद पकड़ी थी। इससे तो धनवती की वेदना दुगुनी हो चुकी थी। चूंकि उसने अमर पर तो हृदय का प्यार बरसाया ही था... सुरसुंदरी को भी उसने अपने स्नेह से सराबोर किया था।
सरल... और भोली सन्नारी थी धनवती। उसका मन कबूल नहीं कर पा रहा था... कि 'अमर को परदेश जाना चाहिए। ये करोड़ों की संपत्ति आखिर किसके लिए? मेरा एकलौता बेटा है अमर, फिर उसे क्यों धन कमाने के लिए
दूर के प्रदेश में जाना चाहिए?' ___रो-रोकर उसने आँखे सूजा दी थी । वह अपने शयनकक्ष में मानसिक व्यथा
की आग में झुलस रही थी इतने में श्रेष्ठी धनावह ने शयनखंड में प्रवेश किया। धनवती चौंकती खड़ी हुई... मौन रहकर उसने सेठ का स्वागत किया। सेठ पलंग पर बैठे। उनके चेहरे पर गंभीरता थी... आँखों में पीड़ा की पर्त-दर-पर्त जमी हुई थी।
'मैंने अमर को काफ़ी समझाया... पर वह समझ नहीं रहा रहा है... मुझे लगता है अब यदि उसे रोकने की ज्यादा कोशिश करें तो वह दुःखी हो जाएगा।'
सेठ ने धनवती के सामने देखा... धनवती की आँखें गीली हो आयी थी। सेठ ने कहा :
'अब तुम दिल को मजबूत कर दो... भावनाओं को बस में करो, और कोई चारा नहीं है... अमर तो जाएगा ही... साथ ही पुत्रवधू भी जाएगी।' ___ 'पर, मैं उन दोनों के बिना जी कैसे सकूँगी...? नहीं... मैं नहीं जाने दूंगी... नहीं।' ___ 'मैं जनाता हूँ... तुम्हारा पुत्र-प्रेम गहरा है... पुत्रवधू पर भी तुम्हे असीम प्यार है, फिर भी कहता हूँ कि इस समय उस जिनवचन को बारबार याद करो : ‘एगोऽहं नत्थिमे कोई, नामहमन्नस्स कस्सई ।' मैं अकेला हूँ... मेरा कोई नहीं है, मै किसी का नहीं हूँ...' इस परम सत्य वचन को बारबार याद करो। दीनता को छोड़ दो... मैंने भी इसी जिनवचन का सहारा लिया एवं कुछ शांति
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