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माँ का दिल ___ 'मैं समझता हूँ... पिताजी। आपका मुझ पर अपार स्नेह है। मैने बहुत सोचा... आखिर... चरणों में गिरकर... आपको जैसे-तैसे मनाकर जाने का मैंने निर्णय किया है। आपके दिल को भारी दुःख होगा... पर आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर दें।
धनावह सेठ सोच में डूब गये। पुत्र की अनुपस्थिति में यह हवेली कितनी सुनसान हो जाएगी, इसकी कल्पना ही उन्हें सिहरन से भर दे रही है!
'अमर, तू वापस सोच... बेटे!' 'आप इज़ाज़त नहीं देगें तो नहीं जाऊँगा, पर अब मुझे इस हवेली में रहना अच्छा नहीं लगेगा। मुझे खाना-पीना नहीं भाएगा, मेरा दिल भारी-भारी रहेगा।'
सेठ को लगा... अमर का विदेश यात्रा का निर्णय पक्का है, तब उन्होंने दूसरी बात कही :
'यदि तू अपनी माँ की अनुमति प्राप्त कर लेगा, तो मैं तुझे इज़ाज़त दे दूंगा... बस!' _ 'मैं अपनी माँ की गोद में सिर रखकर उसे मना लूँगा, पिताजी! वह मुझे दुःखी नहीं करेगी। हाँ, मुझे उसे दु:खी करना ही पड़ेगा, पर कुछ बरसों का ही तो सवाल है... एक दो साल में तो वापस लौट आऊँगा।'
'एक... दो साल... बेटे! पर मेरी पुत्रवधू मान जाएगी?'
'उसने तो मेरे साथ आने की ज़िद कर रखी है... मेरी माँ उसे मना ले और वह यहाँ रूक जाए तो अच्छा!'
सेठ अमर की आँखो को खुली किताब की तरह पढ़ रहे थे...।
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