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कशमकश
७१ 'अमर, आजकल तू व्यापार में अच्छी दिलचस्पी दिखा रहा है और तू पेढ़ी के जो कार्य सम्हालने लगा है... इससे मेरे दिल को काफ़ी तसल्ली मिली है, बेटा।' ___ अमरकुमार को अपनी मन की बात करने का अवसर मिल गया... उसने मौका साध लिया।
'पिताजी, मैंने तो सिंहलद्वीप के व्यापारियों के साथ व्यापार को लेकर कई तरह की महत्त्वपूर्ण बातें भी की थी।' 'मैं जनाता हूँ... वे व्यापारी तेरी बुद्धि की प्रशंसा भी कर रहे थे मेरे समक्ष ।'
'पिताजी, पिछले कुछ दिनों से मन में एक बात उभर रही है... आप आज्ञा दें तो कहूँ।
'कह न! ज़रूर कह, बेटे!' 'मेरी इच्छा सिंहलद्वीप वगैरह देश-विदेश में जाने की है!' 'हे? पर क्यों बेटा, तुझे क्यों वहाँ जाना पड़े?'
'मैं अपने पुरूषार्थ से अपनी क़िस्मत को आज़माना चाहता हूँ। मैं अपनी बुद्धि से पैसा कमाना चाहता हूँ।' ___ 'क्या बोल रहा है बेटे तू! यह सारी संपत्ति... यह सारा वैभव तेरा ही तो है। तुझे अपनी जिंदगी में कमाने की ज़रूरत ही क्या है? जो कुछ है, उसे ही संभालना ज़रूरी है।' __ 'पिताजी, जो भी है... वह सब आपका उपार्जित किया हुआ है। उत्तम पुत्र तो पिता की कमाई पर नहीं जीते... मैं आपका पुत्र हूँ... आप मुझे उन्नत नहीं देखना चाहते क्या?' ___ 'तू गुणों से उन्नत ही है बेटा! तू ज्ञान और बुद्धि से भी कितना उन्नत है अमर!'
'अब मुझे अपने पराक्रम से उत्कर्ष का मौका दें! पिताजी, मैंने तो अपने मन में तय कर ही लिया है, विदेशों में व्यापार के लिए जाऊँगा।'
सेठ की आँखें डबडबा गयी। अमर ने अपनी निगाहें जमीन पर टिका दीं। सेठ भर्रायी आवाज में बोले : 'बेटे, तेरे बगैर मैं जी नहीं सकता। तेरा विरह मैं नहीं सहन कर पाऊँगा। तुझे ज्यादा क्या कहूँ?'
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