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माँ का दिल पा ली। तुम जानती हो इस दु:खमय संसार में जिनवचन ही सच्ची शरण दे सकता है...| तुमने देखा... अपने पास करोड़ों की संपत्ति है न? फिर भी यह संपत्ति इस वक्त अपने को चैन की साँस लेने दे सकती है? यह धन क्या सांत्वना दे सकता है? इतना वैभव होने पर भी अपने आपको हम कितना दुःखी महसूस कर रहे हैं? जिनवचन ही ऐसा एक सहारा है, जिसका सुमिरन करते ही मन के दुःख टल जाते हैं। मन के दुःख में भी, शारीरिक पीड़ा के वक्त भी जिनवचन ही शांति दे सकते हैं।'
सेठ के चेहरे पर कुछ आभा छा गयी थी। धनवती गहरे सोच में डूबने लगी थी।
'आपकी बात सही है, मेरा अनुराग, मेरी आसक्ति ही मुझे दुःखी बना रही है। अमर का इस में क्या दोष है? सुंदरी भी क्या कर सकती है? और आखिर सुंदरी तो अमर के ही साथ रहे, यह ज्यादा ठीक है।' ___ 'अमर ने तो साथ चलने की उसे बिल्कुल मनाही की थी, पर पुत्रवधू ने ही हठ किया।' _ 'उसके हठ को मैं अच्छा समझती हूँ, पर प्रियजन का विरह मुझे दुःखी कर रहा है... स्नेह तो संयोग ही चाहता है न?'
'उस स्नेह को दूर करने का, कम करने का अमोघ उपाय है, जिनवचन को बारबार रटना... संबंधों की अनित्यता का विचार करना । संसार के भीतरी स्वरूप को बारबार सोचो।
ऐसा विचार मन हल्का कर देता है। मैंने तो अपने मन को तैयार भी कर दिया है, शुभ दिन में अमर को बिदा करने के लिए।' __ 'नहीं, आप इतनी जल्दबाजी न करें। मुझे अपने मन को स्वस्थ कर लेने दें... मेरे अनुरागी आसक्त मन को थोड़ा विरक्त हो जाने दें।'
जब तक तुम हँसकर अनुमति नहीं दोगी, तब तक तो मैं उसे अनुमति थोड़े ही दूंगा? पर तुम्हारा वह लाड़ला भी तुम्हारी इज़ाज़त के बगैर थोड़े ही जाएगा? इसका मुझे तो पूरा भरोसा है। उसे तुम्हारे प्रति अटूट श्रद्धा भी है, पर जवानी का जोश ही कुछ ऐसा होता है।' ___ मुझे दुःख हो... पसंद न हो... ऐसा एक भी कार्य आज तक नहीं किया है, यह मैं जानती हूँ। उसकी मातृभक्ति अद्भुत है। इसलिए तो उस पर मेरा प्यार इतना दृढ़ हो चुका है।'
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