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जीवन एक कल्पवृक्ष
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उसे व्यापार करने की ज़रूरत तो थी ही नहीं । धनावह सेठ के पास अनगिनत संपत्ति थी। संतान में अकेला अमरकुमार ही था । सारी संपत्ति का वह वारिस था। फिर भी अमरकुमार का अंतःकरण पेढ़ी पर नहीं बैठता था । उसका मन तो देश-विदेश में घूमने का अभिलाषी था।
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उसके दिल में सुरसुंदरी के प्रति अटूट प्यार था, फिर भी वह भोग-विलास डूब नहीं गया था। अर्थ-पुरूषार्थ एवं स्व-पराक्रम के प्रति उसका आकर्षण पूरा था। यौवन सहज आवेग था, आकर्षण था, फिर भी व्यापारी के पुत्र को होना चाहिए, वैसा व्यापारिक दिमाग भी उसके पास था।
सुरसुंदरी के साथ उसकी गृहस्थी भी सुखपूर्ण है । आनंद से भरा है। एक साल बीता, दूसरा साल बीता ।
एक दिन धनावह सेठ की पेढ़ी पर सिंहलद्वीप के शाह सौदागर आ पहुँचे । वे अपने साथ लाखों रुपयों का माल लेकर आये थे । धनावह सेठ ने उनका स्वागत किया। अतिथिगृह में उन्हें स्थान दिया । और मुँहमाँगी क़ीमत चुकाकर उनका माल खरीद लिया । व्यापारी खुश हो उठे। उन्होंने भी धनावह सेठ से लाखों रुपयों का दूसरा माल खरीदकर अपने जहाज भरे । अमरकुमार ने उन व्यापारियों से पूछा :
'यहाँ से तुमने जो माल खरीदा - जो जहाज भरे, वह माल कहाँ ले जाओगे?'
‘सिंहलद्वीप में।'
‘वहाँ इस माल की क़ीमत अच्छी होगी, न?'
'अरे छोटे सेठ, दस गुनी क़ीमत मिलेगी वहाँ तो ।'
अमरकुमार तो क़ीमत सुनकर ठगा-ठगा सा रह गया। व्यापारियों ने अमरकुमार से कहा :
‘छोटे सेठ, पधारिए आप हमारे देश में। हमारा देश आप देखें तो सही। हमें भी आपकी खातिरदारी का मौका दिजीए ।'
व्यापारी तो चले गये... पर अमरकुमार के मन में उनकी बातें बराबर जमी रही। दूर-सुदूर के देश-विदेशों को देखने एवं अपने बुद्धि-कौशल्य से विपुल संपत्ति कमाने का इरादा ज़ोर पकड़ता गया । बाप की कमाई ! आखिर बाप की कमाई है! बाप की कमाई पर जीनेवाले बेटे पिता की इज्जत नहीं बढ़ाते! पिता
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