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जीवन एक कल्पवृक्ष 'क्यों?' 'चूंकि, सुख के बाद दुःख आता ही है!' 'आयेगा तब देखा जायेगा।' 'पहले से उसके स्वीकार की तैयारी कर रखी हो तो, जब दुःख आये तब दुःखी न हो जाएँ। 'यह सब साध्वीजी से सीखा लगता है!' 'जी, हाँ, जिंदगी का तत्त्वज्ञान उन्होंने ही दिया है।' 'तत्त्वज्ञान तो बहुत सुंदर है।' 'जिन-वचन है ना? जिन-वचन यानी श्रेष्ठ-दर्शन ।' 'जीवन को अमृतमय बनानेवाला दर्शन ।'
रात का प्रथम प्रहर समाप्त हुआ जा रहा था। हवा में और ज्यादा नमी छाने लगी... झरोखे में से उठकर दंपत्ति ने शयनकक्ष में प्रवेश किया... दीये मद्धिम हुए जा रहे थे।
अमरकुमार और सुरसुंदरी दोनों को करीब-करीब समान शिक्षा प्राप्त थी। व्यावहारिक एवं धार्मिक दोनों तरह की शिक्षा उन्हें प्राप्त थी। एक-से वातावरण में दोनों का लालन-पालन हुआ था। संस्कार भी दोनों के समान थे। दोनों के विचारों में साम्य था। दोनों के आदर्शों में कोई टकराव न था। दोनों की जीवन-पद्धति में सामंजस्य था।
इसलिए ही तो शादी के प्रारंभिक दिनों में भी उनका प्रेमालाप दार्शनिक सिद्धांतों की चर्चा से हरा भरा रहता था। उनकी ऊर्मियों ने, उनके आवेगों ने किनारे का कभी उल्लघंन नहीं किया था। स्थल एवं समय का भान उन्हें पूरी तरह था।
अध्ययन पूर्ण होने के पश्चात् अमरकुमार अपनी पेढ़ी पर आया-जाया करता था। हालाँकि, वह स्वयं कोई व्यापार नहीं करता था, पर मुनीमों के कार्यकलापों को देखता था। व्यापार की रीति-नीति को समझता था। तरहतरह के देशों से आने-जानेवाले व्यापारियों से मिलता था। उनसे बातें करता था और उनके बारे में जानकारी प्राप्त कर लेता था।
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