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जीवन एक कल्पवृक्ष
६२ सुंदरी को देखकर धनवती मन-ही-मन बोल उठी, 'सचमुच, मेरा जीवन तो कल्पवृक्ष सा बन गया है... कितना सुख है? इससे ज्यादा सुख इस संसार में और हो भी क्या सकता है?'
बस, यही तो भूल है... गंभीर भूल है, सरल और भोलेभाले हृदय की। वह सुख को जीवन का पर्याय मान बैठता है... जहाँ उसे कोई तन-मन का एकाध मनचाहा सुख मिल जाता है.. और वह जीवन को कल्पवृक्ष मान बैठता है | पर जब कल्पवृक्ष का पर्याय बदल जाता है... कँटीला बबूल बन जाता है, तब वह भोला हृदय चीखता है, चिल्लाता है... करूण-आक्रंद करता है। मानव की यह कमज़ोरी आजकल की नहीं, अपितु इस संसार जितनी ही पुरानी है।
अर्धचंद्र की छिटकती चाँदनी ने हवेली के इर्द-गिर्द के वृक्षपर्णों पर फैल-फैल कर नृत्य करना प्रारंभ किया था। अमरकुमार सुरसुंदरी को हवेली के उस झरोखे में ले गया जहाँ से बरसती चाँदनी का अमृतपान किया जा सके! जहाँ बैठकर उपवन में से आ रही गीली-गीली मादक रेशमी हवा का स्पर्श पाया जा सके!
दोनों की उभरती-उछलती भावनाएँ खामोशी की दीवार से टकरा रही थी। दोनों की नज़रे चंद्र, वृक्ष और नगर के दीयों की ओर थी। अमर के होठों में शब्दों की कलियाँ खिल उठी... 'चारों तरफ जैसे सुख ही सुख बिखरा हुआ है। है न?'
सुखी व्यक्ति को चारों ओर सुख-ही-सुख नज़र आता है, जैसे पूर्ण व्यक्ति को समूचा विश्व पूर्ण नजर आता है! 'पर, सर्वत्र सुख है.., तब सुख नज़र आता है न सुखी को।' 'नहीं, सुखी को दुःख दिखता नहीं है, इसलिए सर्वत्र उसे सुख दिखायी देता है।'
'दुःख देखना ही क्यों? दुःख देखने से ही मानव दुःखी होता है।' 'औरों के दुःख होने का सुख भी अनुभव करने लायक है।' 'पर, अभी तो हम एक-दूजे का सुख पा लें।' । 'इसलिए तो शादी रचायी थी!' 'सुखों को प्राप्त करने के लिए?' 'सुखों को भोगने के लिए, दुःखों को स्वीकार करने की तैयारी रखनी ही चाहिए।'
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