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जीवन एक कल्पवृक्ष
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HAP[१०. जीवन : एक कल्पवृक्ष STY
सुबह का बालसूरज सुरसुंदरी के चेहरे पर अठखेलियाँ कर रहा था। उसकी रक्तिम आभा में... सुंदरी का आंतर-रूप अमर को पहले-पहल नज़र आया।
सरगम के सप्त स्वरों को आंदोलित करती हुई शीत-हवा हवेली के झरोखें में से आ-आकर कमरे को भर रही थी। भैरवी के करूण फिर भी मधुर-स्वर में गूंथी हुई सुरसुंदरी की आवाज श्री नमस्कार महामंत्र को और ज्यादा मधुर बना रही थी। अमर उस मधुरता की अनुभूति में आकंठ डुबने लगा था।
सुरसुंदरी ने एक सौ आठ बार श्री नवकार मंत्र का गान किया। और इशान-कोण में नतमस्तक हो ललाट पर अंजलि रचाकर परमात्मा को नमस्कार किया - भाववंदना की!
बाद में समीप में ही बैठे हुए अमरकुमार को प्रणाम किया। 'यह क्या सुंदरी?' 'मेरे प्राणनाथ के चरणों में आत्म-समर्पण!' 'समर्पण तो भीतर का भाव है न? उसकी बाह्य अभिव्यक्ति क्यों?' 'प्रेम को पुष्ट करने के लिए!' 'क्या बिना अभिव्यक्ति के प्रेम पुष्ट नहीं हो सकता?' 'अभिव्यक्ति से एक तरह की तृप्ति मिलती है। हृदय की भावुकता जब झरना बनकर बहने लगती है, तब...' 'दूसरे के दिल को भी हरा-भरा बना देती है... यही कहना है न?' 'आप तो मेरे मन की बातें भी जानने लग गये।' 'दिलों का नैकट्य हो जाने पर यह तो स्वाभाविक रूप से होने लगता है।' 'ऐसा तादात्म्य यदि परमात्मा के साथ हो जाए तो?' 'तब तो...'
'इस संसार के साथ का तादात्म्य बना नहीं रहेगा...| अपना तादात्मय नैकट्य भी नहीं रहेगा... यही कहना है न!
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